वामपंथ के लिये भस्मासुर है – महिषासुर (आलेख 4)

चित्र “कैमरीना एकेडमी फेसबुक पृष्ठ” से आभार सहित

सुना है बडे पढे लिक्खे होते हैं वामपंथी। वे प्रगतिशीलता की ढाल के साथ देवी दुर्गा को वेश्या कहते हैं और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ध्वज फडर-फडर करता रहता है। हमने कब उनसे सवाल किया कि जहर के पीछे का साँप कौन है? फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका तथा इसी प्रेस से प्रकाशित महिषासुर पर केंद्रित सभी पुस्तकें दुर्गा की व्याख्या का आधार सप्तशती को बताती हैं। यद्यपि लाल-व्याख्या में जो चतुराईयाँ और मिथ्या का घालमेल है उसपर बहस इसलिये नहीं होती क्योंकि भावुक देश नारों पर ही बहस कर के शांत हो जाता है, बात तथ्यों तक न तो पहुँचती है, न ही पहुँचने दी जाती है। वामपंथी कार्यशैली है कि सौ बार झूठ बोलो, वह सच मान लिया जायेगा। अजब लोग हैं हम कि झूठे के सामने आईना रखने जितना श्रम भी नहीं करते। पहले यह जान लें कि शास्त्रों में देवी दुर्गा और महिषासुर प्रसंग पर क्या लिखा गया है।

 

दुर्गा-महिषासुर प्रकरण में सारी आलोचनाओं और विवेचनाओं के केन्द्र में दुर्गा सप्तशती में वर्णित प्रसंग है। इस कृति में महिषासुर से सम्बन्धित सभी श्लोकों के निहितार्थों को क्रमवार लेते हैं – पूर्व काल में देवताओं और असुरों में पूरे सौ वर्षों तक घोर संग्राम हुआ था। उसमें असुरों का स्वामि महिषासुर था और देवताओं के नायक इन्द्र थे। उस युद्ध में देवताओं की सेना महाबली असुरों से परास्त हो गयी। सम्पूर्ण देवताओं को जीत कर महिषासुर इन्द्र बन बैठा (द्वितीय अध्याय, 2-3)। पराजित देवता प्रजापति ब्रम्हा को आगे कर के उस स्थान पर गये जहाँ भगवान शंकर और विष्णु विराजमान थे (द्वितीय अध्याय, 4)। देवताओं ने महिषासुर के पराक्रम तथा अपनी पराजय का यथावत वृतांत उन दोनो देवेश्वरों से विस्तारपूर्वक कह सुनाया (द्वितीय अध्याय, 5)। वे बोले भगवान, महिषासुर सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु चन्द्रमा, यम वरुण तथा अन्य देवताओं के भी अधिकार छीन कर स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बना बैठा है (द्वितीय अध्याय, 6)। उस दुरात्मा महिष ने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। अब वे मनुष्यों की भांति पृथ्वी पर विचरण करते हैं (द्वितीय अध्याय, 7)। दैत्यों की यह सारी करतूत हमने आप लोगों से कह सुनायी। अब हम आपकी ही शरण में आये हैं। उसके वध का कोई उपाय सोचिये (द्वितीय अध्याय, 8)। तब अत्यंत क्रोध से भरे हुए चक्रपाणि श्री विष्णु के मुख से एक महान तेज प्रकट हुआ। इसी प्रकार ब्रम्हा, शंकर तथा इन्द्र आदि अन्यान्य देवताओं के शरीर से भी बड़ा भारी तेज निकला। वह सब मिल कर एक हो गया (द्वितीय अध्याय, 10-11)। सम्पूर्ण देवताओं के तेज से प्रकट हुए उस पुञ की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया। और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा (द्वितीय अध्याय, 13)। भगवान शंकर का जो तेज था उससे देवी का मुख प्रकट हुआ, यमराज के तेज से उसके सिर में बाल निकल आये। श्री विष्णु भगवान के तेज से उसकी भुजायें उत्पन्न हुईं (द्वितीय अध्याय, 14)। चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तनों का तथा इन्द्र के तेज से कटिप्रदेश का प्रादुर्भाव हुआ। वरुण के तेज से जंघा और पिंडली तथा पृथ्वी के तेज से नितम्ब भाग प्रकट हुआ (द्वितीय अध्याय, 15) । ब्रम्हा के तेज से दोनो चरण और सूर्य के तेज से पैरों की उंगलियाँ प्रकट हुईं। वसुओं के तेज से हाँथों की उंग्लियाँ तथा कुबेर से नासिका प्रकट हुई (द्वितीय अध्याय, 16)। उस देवी के दाँत प्रजापति के तेज से और तीनों नेत्र अग्नि के तेज से प्रकट हुए (द्वितीय अध्याय, 17)। उसकी भौहें संध्या के और कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार अन्यान्य देवताओं के तेज से भी उस कल्याणकारी देवी का प्रादुर्भाव हुआ (द्वितीय अध्याय, 18)। तदंतर समस्त देवताओं के तेजपुन्ज से प्रकट हुई देवी को देख कर महिषासुर के सताये हुए देवता बहुत प्रसन्न हुए (द्वितीय अध्याय, 19)।

अब तक के विवरण देवी दुर्गा की उत्पत्ति तथा उन्हें मिले समग्र देव समर्थन पर केंद्रित हैं। देवी का कार्य भी निर्धारित था। सप्तशती में आगे उल्लेख है कि – पिनाक धारी भगवान शंकर ने अपने शूल से एक त्रिशूल निकाल कर देवी को दिया। भगवान विष्णु ने भी अपने चक्र से एक चक्र निकाल कर देवी को अर्पित किया (द्वितीय अध्याय, 20)। वरुण ने भी शंख भेंत किया, अग्नि ने उन्हें शक्ति दी तथा वायु ने धनष और वाण से बह्रे हुए दो तरकश प्रदान किये। सहस्त्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से वज्र उत्पन्न कर के दिया तथा ऐरावत हाथी से एक घंटा उतार कर प्रदान किया। यमराज ने काल दण्ड से दण्ड, वरुण ने पाश, प्रजापति ने स्फटिकाक्ष की माला तथा ब्रम्हा जी ने कमण्डल भेंट किया। सूर्य ने देवी के समस्त रोमकूपों में अपनी किरणों का तेज भर दिया। काल ने उन्हें चमकती हुई ढाल और तलवार दी। क्षीर समुद्र ने उज्ज्वल हार तथा कभी न नष्ट होने वाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये साथ ही उन्होंने दिव्य चूडामणि, दो कुण्डल, कड़े, उज्ज्वल अर्धचन्द्र, सब बाहों के लिये केयुर, दोनों चरणों के लिये निर्मल नूपुर, गले की सुन्दर हंसली तथा उंग्लियों में पहनने के लिये रत्नों की अंगूठी भी दी। विश्वकर्मा ने उन्हें अत्यंत निर्मल फरसा भेंट किया। साथ ही अनेक प्रकार के अस्त्र और अभेद्य कवच दिये। इनके सिवा मस्तक और वक्षस्थल पर धारण करने के लिये कभी न कुम्हलाने वाले कमलों की मालायें दीं। जलधि ने उन्हें सुन्दर कमल का फूल भेंट किया, हिमालय ने सवारी के लिये सिंह तथा भांति भांति के रत्न भेंट किये। धनाध्यक्ष कुबेर ने मधु से भरा पानपात्र, तथा सम्पूर्ण नागों के राजा शेष ने जो इस पृथ्वी को धारण करते हैं, उन्हें बहुमूल्य मणियों से विभूषित नागहार भेंट किया। इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी आभूषण तथा अस्त्र शस्त्र दे कर देवि का सम्मान किया। तत्पश्चात उन्होंने बारम्बार अट्टहास पूर्वक उच्च स्वर से गर्जना की। उनके भयंकर नाद से सम्पूर्ण आकाश गूंज उठा। देवि का वह भयंकर, उच्च स्वर से किया गया सिंहनाद कहीं समा न सका। आकाश उसके सामने लघु प्रतीत होने लगा। उससे बड़े जोर की प्रतिध्वनि हुई जिससे सम्पूर्ण विश्व में हलचल मच गयी और समुद्र कांप उठे। पृथ्वी डोलने लगी और समस्त पर्वत हिलने लगे। उस समय देवताओं ने अत्यंत प्रसन्नता के साथ सिंहवाहिनी भवानी से कहा देवि!! तुम्हारी जय हो (द्वितीय अध्याय, 34)। (अगली कडी में जारी) 
(लेखक सुप्रसिद्ध रचनाकार हैं, ये लेखक के निजी विचार हैं।)