महिषासुर अभियान में जो दस्तावेजीकरण फॉर्वर्ड प्रेस के प्रमोद रंजन द्वारा पत्रिका और पुस्तकों के रूप में किया गया है इसमें ईसाई लेखकों की भरमार क्या धर्मांतरण अभियान के साजिशों की कडी का हिस्सा है? फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के इसाई सम्पादकों – डॉ. सिल्विया फर्नान्डीज, आयवन कोस्का अन्य इसाई लेखकों अनिल वर्गीस, सिंथिया स्टीफन आदि का दुर्गा पर टिप्पणी करना क्या साम्प्रदायिकता की कडी नहीं है? इतना ही नहीं फॉरवर्ड प्रेस से प्रकाशित प्रमोद रंजन द्वारा संपादित पुस्तक “महिषासुर: मिथक व परम्परायें” में मुसलमान लेखक नूर जहीर भी महिषासुर और देवी दुर्गा पर टिप्पणी करते नजर आते हैं। पत्रिका तथा उद्धरित पुस्तक के अन्य लेखकों में गौरी लंकेश, अश्विनी पंकज आदि नाम हैं जिनकी प्रतिबध्ध विचारधारा पर मुझे टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है। समग्रता से मैं देखता हूँ तो महिषासुर को ले कर दस्तावेजीकरण में लगे अधिकांश या तो इसाई हैं अथवा मुसलमान हैं अथवा वामपंथी अर्थात किसी का भी हिंदु धर्म, इसकी मान्यताओं, इसकी परम्पराओं से प्रतुयक्ष-परोक्ष कोई लेना देना नहीं है। क्या नास्तिकों, ईसाईयों और मुसलमानों द्वारा किसी धर्म विशेष पर की गयी टिप्पणी को सहिष्णुता की निगाह से देखा जाना चाहिये?
वामपंथ के लिये भस्मासुर है – महिषासुर (आलेख 3)
आलेख – 3 – देवी दुर्गा को वेश्या कहने के दुस्साहसी वामपंथी
ठीक है कि भारत एक धर्म निर्पेक्ष राष्ट्र है, परंतु क्या इसका अर्थ यह है कि इसाई बाईबल माथे पर लगा कर रखे लेकिन देवी दुर्गा को खुलेआम वेश्या कहे या कि कुरान पर कार्टून देश भर में विवाद का कारक बने लेकिन देवी दुर्गा पर बनाये गये आपत्तिजनक चित्रों को प्रगतिशीलता कहा जाये अथवा कार्लमार्क्स को अपना भगवान मानने वाला सम्प्रदाय लेकिन की मूर्ति ढहाने पर आंदोलन खडा कर दे परंतु कश्मीर से कन्याकुमारी तक की समग्र आस्थाओं पर वह हथौडा चलाता रहे? ध्यान रहे कि यह फॉर्वर्ड प्रेस साफ तौर कह रहा है कि उसे हिंदु धर्म की नाभी पर प्रहार करना है। यह प्रहार वामपंथ कैसे और किन धर्म-कट्टरों के साथ मिल कर कर रहा है उसे साफ साफ समझिये। महिषासुर प्रकरण वामपंथ और धर्मांतरण की साजिशों को समझने का सबसे साफ साफ उदाहरण है।
संदर्भों पर आने से पहले महिषासुर को ले कर फैलाई जाने वाली फॉर्वर्ड प्रेस की कहानियों की चीर फाड़ करते हैं। जो कहानी सबसे ज्यादा फैलाई जा रही है उसके अनुसार महिषासुर पश्चिमी भारत के बंग प्रदेश का प्रतापी राजा था। दुर्गा को वे एक वेश्या मानते हैं। छल पूर्वक दुर्गा को राजा महिषासुर की हत्या करने में नौ दिन लगे। इन दिनों में देवता महिषासुर के किले के चारों तरफ जंगलों में भूखे-प्यासे छिपे रहे। जिसके कारण दुर्गा को मानने वाले लोगों में आठ दिनों के व्रत-उपवास का प्रचलन है। आठ दिनों तक दुर्गा महिषासुर के किला में रही और और नौवे दिन उसने द्वार खोल दिये और महिषासुर की हत्या हुई। कहानी कहती है कि सवर्णो (?) की बर्बर कार्रवाईयों में बड़ी संख्या मेँ असुर (?) बस्तियाँ जला दी गयी; असुर नागरिकों को निशाना बनाया गया, औरतों का बलात्कार किया गया और बड़े पैमाने पर बच्चों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। इन बर्बर कार्यवाहियों से घृणा और आत्मग्लानि से व्यथित, उस स्त्री जिसे दुर्गा कहा गया था..नदी मेँ कूदकर आत्महत्या कर ली.. जिसे विसर्जन का रूप देकर सवर्णो द्वारा महिमामंडित कर दिया गया।
देश के अधिकांश साहित्यकार खुद को वामपंथी कहते नहीं अघाते इसलिये फॉर्वर्ड प्रेस के लिये कहाँनिया कौन सा वाद-पंथ और धर्म लिख रहा है इसे समझना रॉकेट साईंस नहीं है। महिषासुर से सम्बंधित इन विद्वत्जनों की गढी गयी साहित्यिक कथा के हास्यास्पद पक्षों को पहले देखते हैं। जन्माष्टमी, रामनवामी या कि गणेश चतुर्थी जैसे अन्य उत्सवों में भी उपवास रखे जाते हैं तब कौन से छुपे हुए देवता भूखे प्यासे थे? सभी देवी देवताओं की मूर्तियाँ विसर्जित की काती हैं क्या सभी ने आत्महत्या की? अब कोई पूछे कि किस साक्ष्य को इस कथन का आधार बनाया गया है और कहानी को बंगाल से जोड कर प्रस्तुत किया गया है? क्या केवल इसलिये कि दुर्गा पूजा बंगाल की सबसे समृद्ध परम्पराओं में से एक है। वे कौन सी श्रुतियाँ अथवा तथ्य हैं जो बताते हैं कि महिषासुर वध के बाद बलात्कार हुए और बच्चों की हत्यायें हुईं। किसी भी घटना को कारुणिक और उत्तेजक बनाने के विचारधारापरक प्रचलित ‘शब्द हथियार’ हैं – बलात्कार और हत्या। सबसे बडी बात कि जो लोग पूरी बेशर्मी के साथ यह लिखने का दुस्साहस करते हैं कि देवी दुर्गा एक वेश्या थीं उन्हें हमें मानक बना कर वामपंथ की चीरफाड आवश्यक रूप से करनी चाहिये। (अगली कडी में जारी….)।
(लेखक सुप्रसिद्ध रचनाकार हैं)
ये लेखक के निजी विचार हैं।