भारतीय राजनीति के अटल अध्याय थे अटल बिहारी वाजपेयी जी

 

शुचिता, सर्वस्पर्शी, समावेशी राजनाति के रूप में विशिष्ट पहचान वाले राजनेता का जाना भारतीय जनमानस के गले नहीं उतर रहा है। गुरुवार को सायं 5 :05 बजे एम्स अधिकारियों के द्वारा अटल जी के निधन का अधिकारिक सूचना दिये जाने के बाद भारतवासियों के आंखों में आसूंओं का सैलाब उमड़ गया है। हर आंख नम और जुबां खामोश है। मां सरस्वती के अनुपम लाल, जिनकी प्रखर वाणी भारतीय राजनीति को झंकृत करती थी, जिनका भाषण सुनने विरोधी भी चुपके से सभा में जाते थे, उस सरस्वती पुत्र ने आज चिर मौंन का चादर ओढ़ रखा है।  काल के कुचक्र ने आज भारतवासियों से राजनीति के कोहिनूर को सदा सदा के लिए छिन लिया। जानकार बताते हैं कि भारतीय राजनीति का कोई ऐसा क्षण न था जब अटल जी को याद न किया गया हो। उनके एक – एक शब्द लोगों के कानों को झंकृत करते, उनकी कविता और ठहाकों के बिना सेंट्रल हॉल और सियासी गलियां खुद को अनाथ महसूस करतीं। अटल जी का निधन नहीं हुआ है, उन्होंने काल के कपाल पर ऐसी अमिट छाप छोड़ी है, जो भारतीय राजनीति के इतिहास में अटल बनी रहेगी।

अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीतिक ऐसा हस्ताक्षर हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व से न केवल अपनी विशिष्ट पहचान बल्कि भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुंचाकर पहली बार बिना बाधा के पांच साल सफलतापूर्वक गैर क्रांग्रेसी सरकार की संकल्पना को फलीभूत किया।  स्वीकार्यता उनका दूसरा सबसे बड़ा गुण था। वे अपने निर्मल मन से अपने सामने वाले को इस हद तक आदरपूर्वक स्वीकार करते थे विरोधी भी उन्हें अपनाने के लिए विवश हो जाता था। वाजपेयी जी के व्यक्तित्व का कमाल था कि 24 दलों का समर्थन लेकर बिना बाधा के सरकार चलाई।  राजनीति के तीनों देवियों – मायावती, ममता और जयललिता को एक साथ लेकर चलना सिर्फ उनके बलबूते की बात थी।

वे जितने सहज थे उतने ही इरादे के अटल…. परमाणु परीक्षण हो या फिर कारगिल की लड़ाई, वे किसी से नहीं न डरे और न झिझके। कहा जाता है सियाचिन की चोटियों पर पाकिस्तानी आक्रांताओं को भगाने के लिए वायुसेना की प्रयोग करने के मुद्दे पर आम राय नहीं बन पायी थी लेकिन उन्होंने  फैसला लिया कि हम सरहद पार भले ही न करें पर अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। परिणामस्वरूप पाकिस्तान के पांव तले जमीन खिसक गई और आक्रांताओं से सियाचीन मुक्त हुआ। अटल जी के इस निर्णय और भारतीय वायुसेना की कार्रवाई को देखकर पाकिस्तान हक्का-बक्का रह गए। परवेज मुशर्रफ के पास इसका कोई जवाब नहीं था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा तक का सफर

अटल बिहारी वाजपेयी जी 1939 में स्वयंसेवक के तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े उसके बाद उन्होंने 1942 अगस्त में भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया।  1951 में दीनदयाल उपाध्याय के साथ उनको भारतीय जनसंघ की जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्हें राष्ट्रीय सचिव बनाया गया और दिल्ली से उत्तरी क्षेत्र का नेतृत्व मिला। 1968 में वे जनसंघ के राष्ट्रीय बने। आपातकाल के दौरान 1975 से 1977 तक विपक्ष के अन्य नेताओं के साथ वे जेल में रहे। 1980 में मोरारजी देसाई की सरकार गिरने के बाद अटल-आडवाणी ने अपने साथियों के साथ मिलकर भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की, अटल भाजपा के पहले अध्यक्ष बने।

 

12 बार बने सांसद

अटल बिहारी वाजपेयी 1951 से भारतीय राजनीति का हिस्सा बने। उन्होंने 1955 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा था लेकिन हार गए। इसके बाद 1957 में वह सासंद बनें। अटल बिहारी वाजपेयी कुल 10 बार लोकसभा के सांसद रहे। वहीं वह दो बार 1962 और 1986 में राज्यसभा के सांसद भी रहें। इस दौरान अटल ने उत्तर प्रदेश, नई दिल्ली और मध्य प्रदेश से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीते। वहीं वह गुजरात से राज्यसभा पहुंचे थे।

1996 में पहली बार बने प्रधानमंत्री

भाजपा के चार दशक तक विपक्ष में रहने के बाद वाजपेयी 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन संख्याबल नहीं होने से उनकी सरकार महज 13 दिन में ही गिर गई। आंकड़ों ने एक बार फिर वाजपेयी के साथ लुका-छिपी का खेल खेला और स्थिर बहुमत नहीं होने के कारण 13 महीने बाद 1999 की शुरुआत में उनके नेतृत्व वाली दूसरी सरकार भी गिर गई। अन्नाद्रमुक प्रमुख जे जयललिता द्वारा केंद्र की भाजपा की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेने की पृष्ठभूमि में वाजपेयी सरकार धराशायी हो गई। लेकिन 1999 के चुनाव में वाजपेयी पिछली बार के मुकाबले एक अधिक स्थिर गठबंधन सरकार के मुखिया बने, जिसने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। गठबंधन राजनीति की मजबूरी के कारण भाजपा को अपने मूल मुद्दों को पीछे रखना पड़ा।

 

परमाणु परीक्षण कर वैश्विक स्तर पर भारत की धाक जमायी

अटल बिहारी वाजपेयी सिर्फ नाम के अटल नहीं थे बल्कि वे इरादे के भी अटल थे जिसकी बानगी है पोखरण परमाणु परीक्षण…। सन 1998 में 11 और 13 मई को पोखरण में पांच भूमिगत परमाणु विस्फोट कर उन्होंने भारत की अटल इरादों से दुनिया को अवगत कराया, उनके इस निर्णय ने सभी को चौंका दिया। यह भारत का दूसरा परमाणु परीक्षण था। इससे पहले 1974 में पोखरण एक का परीक्षण किया गया था। दुनिया के कई संपन्न देशों के विरोध के बावजूद अटल सरकार ने इस परीक्षण को अंजाम दिया, जिसके बाद अमेरिका, कनाडा, जापान और यूरोपियन यूनियन समेत कई देशों ने भारत पर कई तरह की रोक भी लगा दी थी जिसके बावजूद भी अटल सरकार ने देश की जीडीपी में बढ़ोतरी की।

 

 

व्यक्तिगत टिप्पणी के धूर विरोधी थे अटल जी

अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति की दुनिया में एक ऐसी शख्सियत हैं जो अपने दल ही नहीं अपितु दूसरे दलों के नेताओं के दिल में बसते हैं। अटल जी किसी के ऊपर व्यक्तिगत आक्षेप के धूर विरोधी थे वे दूसरे दलों के नेताओ को अपना दुश्मन नहीं, सिर्फ राजनीतिक विरोधी मानते थे। उन्होंने कभी किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं की। एक बार तत्कालीन कोयला मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बिहार जाकर लालू यादव के खिलाफ सख्त शब्दों का इस्तेमाल किया जो वाजपेयी जी नागवार गुजरा उन्होंने रविशंकर प्रसाद को चाय पर बुलाया और पूरी मुलाकात के दौरान कुछ नहीं कहा। परेशान रविशंकर जब जाने लगे तो वाजपेयी जी बोले, रवि बाबू, अब आप भारत गणराज्य के मंत्री हैं, सिर्फ बिहार के नहीं, इस बात का आपको ध्यान रखना चाहिए, वैसे भी किसी पर व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी करना न्यायोचित नहीं है।

 

जब अटल जी ने कहा था संसद को समाज का दर्पण होना चाहिए

अटल जी अपनी बेबाक अंदाज और बिंदास बोल के जाने जाते थे, समय – समय पर उन्होनें सभी राजनीतिक पार्टियों को राजनीतिक शुचिता का पाठ पढ़ाई। एक बार संसद के अपने संबोधन में कहा कि संसद को समाज का दर्पण होना चाहिए। समाचार पत्र लोकतंत्र का प्रहरी है उसे भी समाज का दर्पण होना चाहिए।

लेकिन अगर संसद से तथ्य छिपाए जाएंगे, वाद – विवाद के लिए उन्मुक्त वातावरण नहीं होगा, सिर्फ  संख्या बल पर बात गले के नीचे उतरवाने की कोशिश की जाएगी, तो संसद राष्ट्र के हृदय का एक स्पंदन नहीं रहेगी। अन्य संस्थाओं की तरह ही एक संस्था मात्र रह जाएगी, वह कानून पर मुहर लगाएगी, मगर देश में न तो कोई बुनियादी परिवर्तन ला सकेगी। उन्होंने अपने मन की पीड़ा को साझा करते हुए कहा था कि लोकसभा में बैठकर कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं अपने दायित्व का पालन नहीं कर पाता। क्या बोलें? किसके सामने बोलें? जिन्हें सुनाना चाहते हैं वे सुनते नहीं। जो सुनते हैं वो समझ नहीं रहे हैं। जो समझ रहें हैं, वे जवाब नहीं दे रहे। संसद में वार्तालाप कम हो गया है। अपनी बात कहने की रस्म अदायगी ज्यादा हो रही है। ये खतरे की घंटी है।

 

हिन्दी भाषा के प्रखर प्रकाशपुंज थे अटल जी

हिन्दी को वैश्विक स्तर पर ले जाने का श्रेय अगर किसी को दिया जाय तो उसके असली हकदार हैं अटल बिहारी वाजपेयी जी जिन्होंने हिंदी को प्रचारित और प्रसारित करने और इसके प्रति दुनिया का ध्यान आकर्षित करने का लिए सबसे ज्यादा काम किया। अटल जी जीवनपर्यंत हिंदी भाषा से बेहद लगाव रहा। इस लगाव का असर उस वक्त भी देखा जा सकता था जब 1977 में जनता सरकार में विदेश मंत्री के तौर पर काम कर रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में अपना पहला भाषण हिंदी में देकर सभी के दिल में हिन्दी भाषा का गहरा प्रभाव छोड़ दिया था। संयुक्त राष्ट्र में अटल बिहारी वाजपेयी का हिंदी में दिया भाषण उस वक्त काफी लोकप्रिया हुआ। यह पहला मौका था जब यूएन जैसे बड़े अतंराष्ट्रीय मंच पर भारत की गूंज सुनने को मिली थी। हिन्दी में दिये गये  वाजपेयी का यह भाषण संयुक्त राष्ट्र महासभा में आए सभी प्रतिनिधियों को इतना पसंद आया कि उन्होंने खड़े होकर अटल जी के लिए तालियां बजाई। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का संदेश देते अपने भाषण में उन्होंने मूलभूत मानव अधिकारों के साथ- साथ रंगभेद जैसे गंभीर मुद्दों का जिक्र किया था। अटल जी ने जो भाषण दिया था उससे यह साफ पता लगाया जा सकता है कि उन्होंने हिंदी भाषा को अपने दिल के कितने करीब रखा हुआ है।

भारत रत्न और तीन बार प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी जी की विरासत है कि उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि और विचारधारा गौण हो गई, अटल जी का व्यक्तित्व सर्वोपरि हो गया। अटल जी कला थी थी कि राजनीतिक रूप से विरोधी रहकर भी उन्होंने सबसे आत्मीय लगाव बनाये रखा। यही कारण है कि उनकी लोकप्रियता भाजपा के साथ साथ विपक्षी दल के नेताओं में समान रूप से है। उनकी यह कला किसी भी राजनीतिक तल और नेतृत्व के लिए अनुकरणीय है।