भारतीय संस्कृति का प्रदूषणरहित परिवहन बैलगाड़ी

डीजल – पेट्रोल के आसमान चढ़ते दाम और प्रदूषण से युक्त वातावरण में आज भले ही मानव की रफ्तार बिजली के करंट जैसी हो गई हो लेकिन कभी भारतीय परिवहन की रीढ़ बैलगाड़ी हुआ करता था, जो बिल्कुल प्रदूषणरहित है। बैलगाड़ी यानी एक ऐसी गाड़ी  जिसमें आत्मीय संवाद हो, प्रेम हो, प्रकृति और मनुष्य के बीच सामंजस्य हो । शहरों में रहने वाले बच्चे शायद ही अब बैलगाड़ी के बारे जानता होगा, उन्हें कहां पता होगा कि जुआठ क्या होता है, उन्हें क्या पता उदाल और पिछाड़ क्या होता है….। विकास करना अच्छी बात है लेकिन अपनी संस्कृति से कट जाना सर्वथा अनुचित है। बैलगाड़ी को,  मैं भी महानगर आकर भूल गया था लेकिन एक दिन फेसबुक पर स्क्रॉल कर रहा था तभी किसी के टाइमलाइन पर बैलगाड़ी की तस्वीर दिखाई दी, बस ! क्या था.. मैं अपने बचपन में खो गया और बार – बार बैलगाड़ी में बैठकर हिचकोले खाने लगा। खीजन काका की वह आवाज होर्रे…होर,….दब लगा के….बायें, बायें जैसे शब्द मेरे कानों में गूंजने लगा। आज भले ही एक से एक बेहतरीन तथा तेज चाल वाली गाड़िया बनाई गई हैं लेकिन बैलगाड़ी के महत्व को नहीं नकारा जा सकता। बैलगाड़ी विश्व का सबसे पुराना यातायात एवं सामान ढ़ोने का साधन है। इसकी बनावट काफी सरल एवं खूबसूरत होती है। आधुनिकता के इस अंधाधूध दौड़ में मुंशी प्रेमचंद के ‘हीरा – मोती’ की जोड़ी के साथ भारतीय परिवहन की रीढ़ माने जाने वाली बैलगाड़ी भी अंतहीन अंधेरी रात में गुम हो चुकी है। आने वाली पीढ़ी शायद ही बैलगाड़ी देख पाये….बता दें कि बैलगाड़ी में आज के वाहनों की तरह ब्रेक नहीं हुआ करती है फिर भी शायद ही कभी दुर्घटना हो जाये। आज भी गांव के बड़े बुजुर्ग जानते हैं कि बैलगाड़ी हांकने में वही अंतर था जो आज कार या बस चलाने में हैं। उनलोगों के अंदर आत्मा थी, गज्जब का संवाद था। आज जहां मानव – मानव के बीच संवाद समाप्त होने की कगार पर है.. वहीं बैलगाड़ी पर बैठे किसान और बैलों की संवाद किसी आश्चर्य से कम नहीं…चढ़ाई, ढ़लान एवं मोड़ पर सिर्फ छड़ी और बागडोर से नहीं बल्कि संवाद से बैलों का पथ प्रदर्शन किया जाता है। मालिक और बैलों की इस संवाद के बारे में अनके साहित्यकारों ने संवाद की स्याही से इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षर में अंकित किया है।

बैल, जो कभी दरवाजों की शान हुआ करता था

बैल, जो कभी दरवाजों की शान हुआ करता था । कौन किसान कितना समृद्ध है इसका पता करना हो तो पुरान जमाने में लोग उसके दरवाजे पर बंधे बैल से करते थे। यह कहानी सिर्फ किसान की समृद्धि पर खत्म नहीं होती है बल्कि गांवों में युवकों का ब्याह तय होने में भी खेत, खलिहान और खुंटे पर बंधा बैल का अहम भूमिका होता था। क्योंकि सफल किसान की पहचान उसके दरवाजे के बाहर खुंटे पर ऊंचा और छरहरा बैल हुआ करता था, आजकल बैल की जगह स्कार्पियो, बोलेरो, स्वीफ्ट डिजायर, बीएमडब्ल्यू, फरारी, मर्सडीज जैसी गाड़ियों ने ले लिया है। किसानों के दरवाजे की शोभा अब गायब हो चुकी है, चूंकि अधिकांश भाग में खेती आजकल ट्रैक्टर से होनें लगी है। वह दौर अब खत्म हो चुका जब गांवों के दरवाजों पर बंधे अच्छे नस्ल के गाय – बैल और उसका छरहरा शरीर बड़े किसानों की पहचान होती थी।

भारतीय फिल्मों में बैलगाड़ी

भारतीय सिनेमाजगत के कई फिल्मों में बैलगाड़ी को अहम तरीके से दर्शाया है, हांलाकि आजकल के फिल्मों से पूरी तरह गायब है। पुराने फिल्मों में बैलगाड़ी को जीवंत रूप में प्रस्तुत किया गया है। वासु भट्टाचार्य की फिल्म ‘तीसरी कसम’ की पूरी कहानी ही बैलगाड़ी की इर्द – गिर्द घूमती है। इस फिल्म के सभी गाने बैलगाड़ी में ही फिल्माए गए थे। इस फिल्म के सुपरहिट गाना दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई…में बैलगाड़ी का जीवंत रूप आप देख सकते हैं। इसी तरह विमल राय की फिल्म दो बीघा जमीन, देवदास में भी बैलगाड़ी को विशेष स्थान दिया गया है वहीं राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम द्वारा बनाई गई एक फिल्म में तो फिल्म की शुरूआत ही बैलगाड़ी में बैठे एक बुजुर्ग से की गई है।

लुप्त होने की कगार पर बैलगाड़ी

कारों के घुंओं के सामने बैलगाड़ी की रफ्तार धूंधली हो चुकी है, उसकी रफ्तार थम सा गया है। यही स्थिति रहा तो शायद ही आने वाली पीढ़ी को बैलगाड़ी देखने को मिले…इसके कई कारण भी है यथा पशओं का चारा, मशीनी युग, रफ्तार की हौड़, पशु तस्करी….। करीब तीस साल पहले तक किसानों के लगभग घरों में बैलगाड़ी देखने को मिलती थीं, किसान इनका प्रयोग खेती के कामों, सामान लादनें व सफर का आनंद लेने के लिए करते थे। लेकिन मशीनीकरण के युग में यह दिनोंदिन लुप्त होते जा रहा है, हांलाकि अभी भी गांवों में आप बैलगाड़ियों को थोड़ा – बहुत प्रयोग करते देख सकते हैं लेकिन वह दिन दूर नहीं जब बैलगाड़ी, हल-जुआठ, सेंढ़ इत्यादि को संग्रहालय में रखकर अतीत के पन्नों को पलटा जायेगा।