#FACEBOOK संस्मरण : का जाने केहि भेस में…

एक दिन (14-2-2020) अजीब वाकया दरपेश हुआ और मैं सपत्नीक हतप्रभ रह गया। कंकड़बाग पोस्ट ऑफिस से निकला तो छोटी-सी पदयात्रा के बाद चौराहे पर आ गया। तभी 71 वर्षीय वृद्ध और दुर्बल काया वाले एक रिक्शाचालक सम्मुख आकर खड़े हुए। मैंने पूछा, ‘पंचशिव मन्दिर तक चलेंगे?’ उन्होंने स्वीकृति में सिर हिलाया। हम रिक्शे पर सवार होने लगे तो मैंने कहा–‘थोड़ा ठहरियेगा, पाँव में कष्ट है, रिक्शे पर चढ़ना तो मेरी शक्ति की परीक्षा ही है।’
रिक्शेवाले बाबा शुद्ध हिन्दी में बोले–‘आप इस तरफ से चढ़िये, इधर पायदान थोड़ी नीची है।’
उनकी वाक्-शुद्धि पर चकित होते हुए मैंने कहा–‘क्यों न आज बल-परीक्षण हो ही जाय।’ और यह कहते हुए मैं जिस ओर खड़ा था, उसी तरफ से रिक्शे पर सवार हुआ। बाबा रिक्शा ले चले।…

थोड़ी ही दूरी पर मार्ग में एक गड्ढा था जिसमें पानी भरा था। गँदले जल-मार्ग में कहाँ समतल, कहाँ गबचा है, दिखता कहाँ था। कच्चे दिल की मेरी श्रीमतीजी ने रिक्शेवाले से कहा, ‘इसी रास्ते चलेंगे क्या? इसमें तो गड्ढे हैं और वे दीखते भी नहीं।’
हँसते हुए बोले रिक्शेवाले–‘हम तो रोज आते-आते हैं। मुझे मालूम है गड्ढों से भरा है यह मार्ग। चलिए, मेरी परीक्षा भी हो जायेगी।’
हम दोनों उनकी वाक्य-रचना, शब्दों के चयन और शुद्ध उच्चारण से चकित थे। रिक्शेवाले भाई उपर्युक्त वाक्य बोलकर रुके नहीं, धाराप्रवाह बोलते ही रहे–‘ज़िन्दगी ने इतने इम्तहान लिए हैं कि पूरा जीवन परीक्षा देते हुए ही गुज़रा है साहब!’ श्रीमतीजी ने उन्हें बीच में ही रोककर पूछा–‘आप बिहार के तो नहीं लगते। आप कहाँ के रहनेवाले हैं? और, अगर आप बिहार के हैं तो इतनी शुद्ध हिन्दी कैसे बोल रहे हैं?’
उन्होंने बताया कि वह पटना में ही जन्मे और पले-बढ़े हैं, विशुद्ध बिहारी हैं। यह जानकारी देकर वह रुके नहीं, धीमी गति से रिक्शा चलाते हुए अपनी संपूर्ण जीवन-कथा ही सुनाते रहे।… हम दोनों शांतिपूर्वक उनके कष्टपूर्ण जीवन की संघर्ष-कथा सुनते रहे।….

गन्तव्य बहुत दूर नहीं था। आधे घंटे में हम वहाँ पहुँच गए, किन्तु रिक्शाचालक की कथा का अंत नहीं हुआ। रिक्शे से उतरकर भी हम दोनों हतप्रभ-विस्मित-से उनका वक्तव्य सुनते रहे।… कुल जमा उनके जीवन की करुण कथा संक्षेप में इतनी है कि वह “निम्न मध्यवर्गीय कुलोत्पन्न माता-पिता के तृतीय सुपुत्र थे। पिता के सबसे लाडले बेटे! पढ़ने की उत्कट लालसा लिए। अपने सभी अनपढ़ भाई-बहनों में सिर्फ़ उन्होंने ही इण्टर साइंस तक की परीक्षा दी थी और अच्छे अंक अर्जित किये थे।
यथासमय उनका विवाह हुआ। पुत्र-लाभ से वह पुलकित हुए। उन्होंने आजीविका के लिए अथक परिश्रम किया। बिहार सरकार के विभिन्न प्रभागों में लिपिक से लेकर प्यून तक के तमाम पदों के लिए आवेदन दिया, हमेशा अर्थ-संकट उनकी राह का रोड़ा बना रहा और उन्हें कभी कोई पद न मिल सका। वह संकटों से जूझते रहे। उन्होंने माता-पिता के बारी-बारी से विछोह की पीड़ा सही। बड़े भाई-भाभियों के कलह-द्वेष का दंश सहा और अपने परिवार के साथ तन्हा रह गये तथा घोर परिश्रम से परिवार का भरण-पोषण करते रहे।…

पढ़ाकू जीव थे। अतः शाम-रात का शेष समय वह पठन-पाठन और लेखन में लगाने लगे। कुछ लिखने की प्रेरणा उन्हें कई खण्डों में पढ़े हुए देवकीनन्दन खत्री के ग्रंथ ‘चन्द्रकांता संतति’ से मिली। उन्होंने एकबार जो कलम उठायी तो लिखते ही चले गये, रुके नहीं। यह सिलसिला अनवरत चलता रहा और अंततः एक महाग्रंथ उन्होंने लिख डाला, जिसका शीर्षक था–‘गाॅड, गोल्ड ऐंड गन’। इक्यावन खण्डों में इस विशालकाय ग्रंथ का प्रणयन उन्होंने दो वर्षों में किया, जो ‘चन्द्रकांता संतति’ से दुगुना कद्दावर उपन्यास था। अब उन्हें इसके प्रकाशन की फिक्र हुई। वह पटना के कई प्रकाशकों से मिले। लेकिन, बात नहीं बनी। अंततः वह दिल्ली के प्रकाशकों की ओर उन्मुख हुए।…

अनेक प्रयत्न के बाद हिन्द पाॅकेट बुक्स के प्रकाश पंडित से उन्हें पहली बार उत्साहवर्धक सूचना मिली कि विचारार्थ पाण्डुलिपि भेजें। उन्हें अतीव प्रसन्नता हुई। वह पाणुलिपि को खण्डशः टंकित करवा के पंजीकृत डाक से भेजने लगे। टंकन और पंजीकरण के लिए पैसे भी घर के राशन की कीमत पर निकलने लगे। पत्नी हाहाकार करतीं, लेकिन वह किसी की नहीं सुनते, अपनी ज़िद पूरी कर लेते। जब इक्कीस खण्ड भेजे जा चुके और वह बाईसवें की तैयारी में जुटे हुए थे, तभी प्रकाश पंडितजी का एक पत्र उन्हें प्राप्त हुआ, जिसमें उपन्यास की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी थी और ताईद की गयी थी कि पुस्तक बहुत वृहद् आकार ग्रहण करती जा रही है, अब इसके समापन की दिशा में बढ़ें।…

प्रकाश पंडितजी का यह पत्र उत्साहवर्धक था। अपना उपन्यास वह इक्यावन खण्डों में पूरा कर चुके थे, उसे बीच से समेट लेना अब उनके वश की बात नहीं थी। बाईसवें अंक को भेजते हुए उन्होंने प्रकाश पंडित को पत्र भी लिखा और उसमें निवेदन किया कि इक्यावन खण्डों में वह पूरा ग्रंथ लिख चुके हैं, लेकिन धनाभाव के कारण क्रमशः टंकित करवा के भेज रहे हैं। वह चाहें तो उपन्यास को दो या तीन खण्डों में प्रकाशित करने की कृपा करें। इस पत्र के बाद तो वही होना था, जो हुआ। प्रकाश पंडितजी का लंबा पत्र लेखक कुवँर विजय प्रसादजी को प्राप्त हुआ, जिसमें स्पष्ट उल्लेख था कि ‘आपके उपन्यास का कथाक्रम रुचिकर प्रतीत हो रहा है, कथानक कसा हुआ है और लेखन निर्दोष है, किन्तु पूर्वस्वीकृत पाण्डुलिपियों की संख्या को देखते हुए इतना बड़ा प्रोजेक्ट हाथ में लेने की स्थिति में हम नहीं हैं। हमें क्षमा करें।’ लेखक कुवँर विजय प्रसाद के लिए यह पत्र वज्रपात जैसा था। आशाओं के नवांकुरों पर तुषारपात था, लेकिन वह टूटे नहीं, दुःख और निराशा में कुछ दिनों तक डूबे रहे जरूर…!

कुछ समय के बाद वह हताशा से उबर कर उठ खड़े हुए, उन्होंने कमर कसी और घोर श्रम करते हुए धन-संचय करने लगे, इस निश्चय के साथ कि अपना उपन्यास वह स्वयं प्रकाशित करेंगे। अपने इस हठ को पूरा करने में उन्होंने अपना सर्वस्व होम करना शुरू कर दिया। इसी संघर्ष में बारह वर्षों का लंबा वक्त बीता। इस बीच उनका जोड़ा हुआ तिनका-तिनका बिखरता गया। अचानक एक बीमारी ने उनकी पत्नी को अपनी गिरफ्त में ले लिया। रोग भी असाध्य था। चिकित्सकों ने जीवन की आशा छोड़ दी, लेकिन विजय प्रसादजी ने अपने यत्न और अपनी सेवाओं से दो वर्षों तक वह जीवन-दीप बुझने न दिया। काँपती लौ को बुझने से बचाने के प्रयास में उनकी हथेलियाँ जल गयीं। अंततः काल प्रबल सिद्ध हुआ और उसी बीमारी की डोर पकड़कर उनकी पत्नी ने उनका साथ छोड़ दिया और भगवान् की प्यारी हो गयीं। अपने एकमात्र पुत्र के साथ वह संसार में अकेले रह गये। फिर, वह पुत्र भी भरी जवानी में दग़ा दे गया।…

अपने जिस उपन्यास के लिए वह जीवन-भर संघर्षशील रहे, वह भी कभी पटना की बाढ़ में डूब गया। वह निःसंग रह गए–नितान्त एकाकी! लेकिन, वह टूटे नहीं। उन्होंने अपमार्ग का अनुसरण नहीं किया, व्यसनों का अवलंबन नहीं किया। वह संघर्ष का जो सौभाग्य लेकर जन्मे थे, उसी संघर्ष-पथ पर चलते रहे। वह आज भी चल रहे हैं और आपदाओं से जूझ रहे हैं।…

आज 71-72 वर्ष की आयु में रिक्शा खींचते हुए वह मुझे अचानक मिल गये। घर के दरवाजे पर रिक्शे से उतरकर भी हम उनसे बातें करते रहे और देखते रहे उनके चेहरे पर उभर आये घोर संघर्षों के निशान…! देय राशि से अधिक रुपये देकर उनसे विलग होने के पहले हमने आग्रहपूर्वक उनकी कुछ तस्वीरें खींच लीं–कुछ मैंने, कुछ श्रीमतीजी ने। सड़क-किनारे खड़े-खड़े उनके मुख से तुलसी, कबीर, निराला, महादेवी और बच्चन की पंक्तियाँ सुनना विस्मयकारी था।…

उनसे, उनकी कारुणिक कथा से छूटे हुए हमें एक पखवारा बीत चुका है, लेकिन हम दोनों कहाँ उनसे छूट सके हैं? उनके बारे में सोचते हुए एक ही बात मन में कौंध जाती है–‘का जाने केहि भेस में…!’

‘सफलता पाई अथवा नहीं
किसे क्या ज्ञात?
जल गया है गत, अनागत, अज्ञात।
दे चुके धन, यौवन, जीवन सारा
यज्ञ में समिधा बना यह
तन-मन-श्वसन हमारा…!’
साभार – आनंदवर्धन जी के फेसबुक वॉल से

 

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