2002 के गुजरात दंगे को लेकर अतिवादी मुस्लिम से लेकर अधिकतर सामान्य मुस्लिम भी नरेंद्र मोदी से सख्त नाराज रहे हैं।उनकी नाराजगी स्थायी हो चुकी है।
गैर मुस्लिमों के बीच के भी शांतिप्रिय लोग उस सरकार से नाराज होते हैं जहां दंगे- फसाद होते हैं।
पर, समय के साथ नाराजगी या तो दूर हो जाती है या कम हो जाती है।
पर नरेंद्र मोदी पर अतिवादी मुस्लिमों की नाराजगी कम होने का नाम ही नहीं ले रही है।इस चुनाव में भी वह नाराजगी दिखाई पड़ रही है।
जबकि मोदी के प्रधान मंत्रित्वकाल में कहीं भागलपुर या गुजरात जैसा दंगा नहीं हुआ।
एकतरफा रवैए से भाजपा को भी हिन्दुओं के बीच के अतिवादी तत्वों को गोलबंद करने में सुविधा हो रही है।
क्या नाराजगी का कारण सिर्फ 2002 का गुजरात दंगा है ?
मुझे ऐसा नहीं लगता।
कारण कुछ और भी हैं।
कारण गहरे हैं।
खोज का विषय है।
मैं कोई अनुमान लगाना नहीं चाहता।
अब जरा गुजरात दंगे से देश के कुछ अन्य सांप्रदायिक दंगों की तुलना कर लें ।
2002 में गोधरा में ट्रेन में 59 कार सेवकों को अतिवादी मुस्लिमों की भीड़ ने जिन्दा जला दिया ।उसकी प्रतिक्रिया में गुजरात दंगा हुआ।
उस दंगे में 790 मुस्लिम और 254 हिन्दू मारे गए।
दंगा रोकने की कोशिश में करीब दो सौ पुलिसकर्मी शहीद भी हुए।तब मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी थे।
अब गुजरात का ही 1969 का दंगा याद करें।
तब संगठन कांग्रेस के हितेन्द्र देसाई मुख्य मंत्री थे।तब 430 मस्लिम और 24 हिन्दू मारे गए।पता नहीं दंगा रोकने में कितने
पुलिसकर्मी शहीद हुए !
पर हितेन्द्र देसाई या संगठन कांग्रेस पर अतिवादी मुसलमानों क गुस्सा स्थायी नहीं रहा।
उसी तरह 1989 के भागल पुर दंगे को याद कीजिए।
सत्ता संरक्षित मुस्लिम गुंडों ने एस.पी.की जीप पर बम फेंक दिया।
दंगा इसी के बाद शुरू हुआ।तब मुख्य मंत्री कांग्रेस के सत्येंद्र नारायण सिंह थे।
900 मुस्लिम और 100 हिन्दू मारे गए।पता नहीं दंगा रोकने में कितने पुलिसकर्मी शहीद हुए ?
हां, पुलिसकर्मियों ने अल्पसंख्यकों की लाशों को खेत में दफना कर उस पर कोबी बो दिया था।
पर अतिवादी मुसलमानों का कांग्रेस या तब के मुख्य मंत्री पर गुस्सा स्थायी नहीं रहा।
हां, 1989 के चुनाव में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट नहीं दिया था।
मुसलमानों का लालू प्रसाद पर भी गुस्सा स्थायी नहीं रहा जिन्होंने 1989 के दिसंबर में लोक सभा में भाषण दिया था कि भागल पुर दंगे में संघ या भाजपा का हाथ नहीं है।
वैसे स्थायी रहना भी नहीं चाहिए।पर नरेंद्र मोदी पर गुस्सा स्थायी क्यों है ?
जबकि आजादी के बाद हुए अनेक दंगों को लेकर देश के अन्य मुख्य मंत्रियों पर गुस्सा स्थायी नहीं रहा।
अब कुछ बुद्धिजीवियों कव दोगलापन देखिए।
1984 के सिख नर संहार में एक भी गैर सिख नहीं मरा।कोई पुलिसकर्मी दंगाई भीड़ को रोकने में नहीं मरा।
फिर भी वे बुद्धिजीवी 2002 के गुजरात दंगे को तो याद रखते हैं,पर एक तरफा सिख संहार को भूल जाते हैं।
ऐसे रवैए का राजनीतिक लाभ किसे मिलता है ?
(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर जी के फेसबुक वाल से साभार )