वो प्रलय की शाम, हम पर क्यों नहीं आई ?

वो प्रलय की शाम, हम पर क्यों आई? वह भयानक जल प्लावन, मिट गया जहां सारा जीवन, हम पर क्यों आई?
हस रही थी जिंदगी जहां, हो रहा था मंत्रों का उच्चारण, फिर वहां पर मातम, रो रहा है हर कण कण, हम पर क्यों आई?
सब आतुर थे मिलने को अपने इष्ट देव से, लगा रहे थे जयकारे, और बजा रहे थे  मृदंग, फिर वो तीव्र जल की लहरें, जिसने बहा दिया, जीवन का हर रंग, हम पर क्यों आई? हाहाकार क्यों मचा, जहां कल हो रहे थे जयकारे, कुछ भी ना बचा, प्रलय के वेग से, हो गया सब कुछ विनष्ट, हम पर क्यों आई?
चीख, चित्कार और छल छल की ध्वनि, मंद ना पड़ रही थी, प्रलय का मुंह खुला था, सब कुछ लीलने को आतुर, ढह रहे थे हर भवन,  ऐसे में कैसे बचेगा जीवन, हम पर क्यों आई?
सब कुछ लील लिया था उस प्रलय ने, जिस जिस से मांगी मदद, उसने तो मानवता को ही लील रखा था, है इंसान या हैवान, यही तो भ्रम था! आखिर यह भयानक रात, हम पर क्यों आई?
फिर आए देवदूत बनकर, युवक जांबाज़, जिन्होंने बचाए रखा मानवता की लाज, सब कुछ खो चुके थे, घर, अपना भाग्य, अपना प्यार………. दिल को कचोट रही थी सिर्फ एक बात……… वह प्रलय की शाम हम पर क्यों आई?
वह भयानक जल प्लावन, मिट गया जहां सारा जीवन, हम पर क्यों आई?
                                – शिवांश सिंह ‘व्याकुल