नई दिल्ली । केले के पौधे हमारे देश के लगभग सभी राज्यों के पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों में से एक हैं। भारतीय शोधकर्ताओं ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है, जो केले के पौधों में पाए जाने वाले रेशों को अलग करने में उपयोगी हो सकती है। इन रेशों का उपयोग औद्योगिक उत्पादन और स्थानीय स्तर पर रोजगार को बढ़ावा देने में किया जा सकता है।
जोरहाट स्थित सीएसआईआर-उत्तर-पूर्व विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान (एनईआईएसटी) के शोधकर्ताओं द्वारा विकसित इस तकनीक में केले के पौधे में पाए जाने वाले रेशों को अलग करने के लिए विभिन्न यांत्रिक और रासायनिक विधियों का उपयोग किया गया है। इसकी मदद से है। बेहद कम पूंजी में प्रतिदिन एक टन केले के रेशे का उत्पादन किया जा सकता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि बहुतायत में उपलब्ध सेलूलोज़ आधारित कचरे का निपटारा करने के साथ-साथ कई तरह के उत्पाद भी बनाए जा सकेंगे। इन उत्पादों में हैंडीक्राफ्ट व चटाई जैसे घरेलू सामान, सुतली और रस्सी प्रमुख रूप से शामिल हैं। यह एक ईको-फ्रेंडली तकनीक है, जो कौशल तथा उद्यमिता विकास में भी मददगार हो सकती है। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों, निजी उद्यमों, गैर सरकारी संस्थाओं और स्वयं सहायता समूह इस तकनीक के उपयोग से लाभान्वित हो सकते हैं।
हाल में व्यावसायिक उत्पादन के लिए इंफाल की एक निजी कंपनी को यह तकनीक हस्तांतरित की गई है। इस मौके पर एनईआईएसटी के निदेशक डॉ. जी. नरहरि शास्त्री, मणिपुर के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री एल. जयंतकुमार सिंह और मणिपुर स्टेट मेडिसिनल प्लांट बोर्ड के सीईओ गुणेश्वर शर्मा मौजूद थे।
कई बारहमासी पौधे प्रकंद से बढ़ते हैं एवं फल देने के बाद धीरे-धीरे स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र में विघटित हो जाते हैं और कचरे के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रकार, इस सेलूलोज़ आधारित कचरे की एक बड़ी मात्रा उपयोग के लिए उपलब्ध रहती है। एनईआईएसटी के वैज्ञानिकों ने केले के साथ-साथ अन्य पौधों से प्राप्त प्राकृतिक रेशों के संश्लेषण की विधियां विकसित की हैं, जिनका औद्योगिक और व्यावसायिक महत्व काफी अधिक है।
पर्यावरणीय चुनौतियों को देखते हुए पारिस्थितिक संतुलन को नुकसान पहुंचाए बिना प्राकृतिक संसाधनों का औद्योगिक उपयोग लगातार बढ़ रहा है। इस लिहाज से यह तकनीक काफी उपयोगी मानी जा रही है।
केले के पौधे से निकलने वाले रेशे का इस्तेमाल पारंपरिक रूप से फूलों की झालर, कागज और चटाई के निर्माण में किया जाता है। लेकिन, किसानों को अभी भी केले के बागान से रेशे के उत्पादन की क्षमता के बारे में पता नहीं है। इसकी जानकारी किसानों को हो जाए तो उन्हें दोहरा लाभ हो सकता है।
(इंडिया साइंस वायर)