– प्रभात मिश्रा
भारत एक कृषि प्रधान देश है लेकिन यहां के किसान दर – दर ठोकर खानें के लिए मजबूर है। आर्थिक तंगी की वजह से आये दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं। केन्द्र में राजग सरकार आने के बाद किसानों में आस जगी थीं कि उनकी आर्थिक स्थति सुदृढ़ होगी। सरकार भी लगातार किसानों की स्थिति सुधारने की बात कर रही है लेकिन अभी तक स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हो पाया है। यूं कहें तो किसानों की आय दोगुनी करने और किसानों की स्थिति में सुधार की बात आंकड़ों की मकड़जाल में उलझ कर रह गया है। अभी तक किसी भी सरकार ने किसानों की स्थिति को सुधारने के लिए कोई रोडमैप नहीं बनाया फलस्वरूप किसानों की स्थिति दिनोंदिन बदतर होती जा रही है। किसान मजबूरन आत्महत्या कर रहे हैं।
आंकड़ों की बात करें तो पिछले चार सालों में 48 हजार किसानों ने खुदकुशी की है। किसानों की आय को दोगुना करने के नारे के बीच भी किसानों की मौत और खुदकुशी के मामले कम नहीं हो रहे हैं। देश में कृषि विकास की दर घट कर आधी रह गई है। आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा वित्त वर्ष में कृषि विकास दर 2.1 फीसदी रहने का अनुमान है, जबकि पिछले वित्त वर्ष में यह दर 4.9 फीसदी थी। ये रिपोर्ट किसान और व्यापारियों को परेशानी में डाल सकती है। ऐसे में सवाल यह है कि किसानों की आय दोगुनी कैसे होगी? केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने पिछले दिनों चालू वित्त वर्ष के लिए जीडीपी के पूर्वानुमान जारी किये थे। इसके अनुसार कृषि, वानिकी और मत्स्य क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले साल के मुकाबले काफी कम रहने का अनुमान है। इसका सीधा मतलब है कि कृषि क्षेत्र में संकट के बादल छाने वाले हैं। बीते छह वर्षों में सिर्फ दो वर्ष 2013-14 और 2016-17 ही ऐसे रहे हैं, जब कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर बेहतर रही है। बाकी चार वर्षों में कृषि विकास दर कम आंकी गई है।
प्रधानमंत्री मोदी का दावा है कि उनकी सरकार की कोशिशों के बदौलत 2022 तक देश के किसानों की आय मौजूदा आय से दोगुनी हो जाएगी। लेकिन सवाल यह है कि किसानों की आय को दोगुनी करने के लिए सरकारी स्तर क्या प्रयास किये गये हैं? सरकार ने जो प्रयास किये हैं वह किसानों की स्थिति को सुधारने के लिए पर्याप्त है क्या? सरकार के प्रयास धरातल पर भी दिखने चाहिए वरना वह दिन भी दूर नहीं कि लोग पूरी तरह खेती करना छोड़ देंगे। सरकार ने भी उच्चतम न्यायालय में स्वीकार किया कि फसल नुकसान और कर्ज की वजह से पिछले चार वर्षों में लगभग 48,000 किसान अपनी जान दे चुके हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक 1997-2012 के दौरान करीब ढाई लाख किसानों ने अपनी जान गंवाई है। जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक 2001 और 2011 के बीच 90 लाख किसानों ने खेती करना छोड़ दिया। इसी अवधि में कृषि श्रमिकों की संख्या 3.75 करोड़ बढ़ी, यानी कि 35 फीसदी की वृद्धि हुई।
किसानों के संवर्द्धन करने के सरकार के तमाम दावों के बीच किसान अपनी उपज की लागत निकालने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक प्रतिवर्ष देश के 12 हजार किसान आमहत्या कर लेते हैं, जबकि इससे भी ज्यादा संख्या उन किसानों की है, जो हर साल खेती छोड़कर दूसरा पेशा अपना रहे हैं। सरकार देश के किसानों को लेकर कितनी संजीदा है यह बात इस साल के आम बजट में जरूर दिखती है। बजट 2018 में फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य, कृषि बाजार, ग्रामीण विक्रय केंद्र, मेगा फूड पार्क और 22 हजार ग्रामीण हाटों को कृषि बाजार बनाने समेत करीब डेढ़ दर्जन घोषणाएं की गई हैं। सरकार का दावा है कि इस बजट से किसानों को फायदा होगा। सरकार के दावों से इतर इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि आज भी अधिकतर राज्यों में अनाजों की खरीदारी के लिए कोई सरकारी तंत्र सही तरीके काम नहीं कर रही है। अपने खेतों के उत्पाद को खराब होने से पहले बेचने के लिए देश के ज्यादातर किसानों को बिचैलियों का सहारा लेना पड़ता है। हांलाकि इस बीच राहत की खबर यह है कि प्रधानमंत्री ने देश के अलग अलग हिस्सों में दशकों से लंबित पड़ी 99 सिंचाई परियोजनाओं को जल्द पूरा करने की बात की है। लेकिन इसके साथ ही इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि आखिर ये परियोजनाएं इतने लंबे समय तक लटकी क्यों रहीं। प्रधानमंत्री के आश्वासन के अनुरूप यदि इन परियोजनाओं को मुकाम तक पहुंचा दिया गया तो देश के किसानों की एक बड़ी आबादी इससे लाभान्वित होगी। लेकिन ऐसा तभी हो सकेगा, जब इसके लिए ईमानदार कोशिश की जाये। इसके साथ ही सरकार को लंबित परियोजनाओं के दीर्घकाल तक लटके रहने के लिए जिम्मेदार लोगों की तलाश कर उनकी जवाबदेही भी तय करनी चाहिए, ताकि भविष्य में कोई भी किसानों या देशवासियों के हित में शुरू होने वाली परियोजनाओं की अनदेखी करने की हिम्मत भी न कर सके।
(लेखर नवोदित पत्रकार हैं।)
नोट – उपरोक्त वर्णित तथ्य लेखक के निजी विचार हैं।