नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जयंती पर विशेष
कोई भी देश या समाज हो उसके सामने सबसे अहम् प्रश्न यही रहता है कि उसका युवा वर्ग राष्ट्र निर्माण में क्या भूमिका निभाएगा। कोई भी देशहितैषी कभी यह नहीं चाहेगा कि उसके समाज का युवा दंभी और आत्म केन्द्रित हो, तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति हेतु देशहितों की अनदेखी करे। कोई नहीं चाहेगा कि उसका अपना युवा वर्ग पौरुषहीन हो और उसकी कथनी और करनी में फर्क हो। हर समाज की स्वाभाविक अपेक्षा रहती है कि उसके यहां का युवा भविष्य को गढ़ने वाला, वीरता, शौर्य, पराक्रम, समर्पण से ओतप्रोत होकर राष्ट्र निर्माण में अपनी अहम् भूमिका निभाए। यह अपेक्षा इसलिए भी स्वाभाविक है कि हर विवेकशील व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि यदि युवा वर्ग गुमराह हो गया तो देश के उज्जवल भविष्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह बात कहने में तनिक भी संकोच नहीं होना चाहिए कि वर्तमान नीतियों के दम पर युवाओं में राष्ट्रभक्ति पैदा करने का सपना देखना ठीक उसी प्रकार होगा जैसे बबूल के बीज बोकर आम के मीठे फल चखने की आशा करना। युवाओं के समक्ष गलत आदर्शों को महिमा मंडित कर राष्ट्र की आशा का आधार स्तंभ नहीं बनाया जा सकता। उसके लिए तो यही आवश्यक है कि उनके युवा मन को राष्ट्रभक्ति की ज्वाला से आलोकित करने वाले चरित्र नायकों को आदर्शरूप में उनके सामने लाया जाए। ऐसे चरित्र जिनकी प्रेरक जीवन गाथाओं को सुनकर युवा मन बलिदान और समर्पण की भावनाओं से उद्वेलित हो उठे, जिनके चरित्र के पावन यज्ञकुण्ड में सारे कलुष जलकर भस्म हो जाएं।
परन्तु यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि देश के लिए समर्पित युवा पीढ़ी किस तरह तैयार की जाए। आज युवाओ में व्याप्त अनुशासनहीनता, दंभ, स्वार्थपरायणता, स्वाभिमानशून्यता आदि के लिए इस पीढ़ी को दोषी ठहराते हैं लेकिन क्या वास्तव में हमने कभी इसके लिए कोई सार्थक प्रयास किया है। क्या कभी राष्ट्रनिर्माम में युवाओं की भूमिका को लेकर कोई गंभीर बहस चलाई है। आजादी के बाद देश की दशा और दिशा तय करने की जिम्मेदारी जिनके ऊपर सौंपी गयी क्या उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन पूरी ईमानदारी से किया। युवाओं में देश प्रेम और भारतीयता की अलख जगाने कि लिए क्या किसी महानायक को हमारे इतिहासकारों ने सही रूप से चित्रित किया। इन सबकी जड़ों में जब हम जाते हैं तो स्पष्ट रूप से दिखता है कि हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली ही राजनीति की शिकार है। जिन महानायकों से देश की युवा पीढ़ी प्रेरणा ले सकती है उनके बारे में लेखन का काम एक विशेष मानसिकता के शिकार लोगों के हाथों में सौंप दिया गया।
राष्ट्र नायकों की एक लम्बी श्रृंखला रही है जिन्होंने इस देश के लिए अपना सबकुछ हंसते-हंसते न्यौछावर कर दिया। इनके अंदर वो कसक थी जो गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी मां भारती को हर हाल में आजाद देखना चाहते थे। इन्होंने आजादी के नाम पर समझौते नहीं लड़ाइयां लड़ी। इन्होंने मातृभूमि के लिए सन्धियां नहीं की बल्कि अपना बलिदान दिया। ऐसे ही एक महानायक थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस… जिनके जय हिन्द के उद्घोष मात्र से ही युवकों में भारतमाता की विजय की अदम्य आकांक्षा व संकल्प पैदा होता था। सुभाष ने पिता की चुनौती स्वीकार कर आईसीसी की परीक्षा तो विदेश जाकर उत्तीर्ण कर ली परंतु उच्च पद सम्भालने का आमंत्रण दिये जाने पर भी उन्होंने स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम ‘जानकीनाथ बोस’ और माँ का नाम ‘प्रभावती’ था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वक़ील थे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था।
नेताजी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में हुई। तत्पश्चात् उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेज़िडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई, और बाद में भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने बोस को इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया। अँग्रेज़ी शासन काल में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था किंतु उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया।
1921 में भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों का समाचार पाकर बोस ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और शीघ्र भारत लौट आए। सिविल सर्विस छोड़ने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए। सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों से सहमत नहीं थे। वास्तव में महात्मा गांधी उदार दल का नेतृत्व करते थे, वहीं सुभाष चंद्र बोस जोशीले क्रांतिकारी दल के प्रिय थे। महात्मा गाँधी और सुभाष चंद्र बोस के विचार भिन्न-भिन्न थे लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गाँधी और उनका मक़सद एक है, यानी देश की आज़ादी। सबसे पहले गाँधीजी को राष्ट्रपिता कह कर नेताजी ने ही संबोधित किया था।
1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया। यह नीति गाँधीवादी आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी। 1939 में बोस पुन एक गाँधीवादी प्रतिद्वंदी को हराकर विजयी हुए। गांधी ने इसे अपनी हार के रुप में लिया। उनके अध्यक्ष चुने जाने पर गांधी जी ने कहा कि बोस की जीत मेरी हार है और ऐसा लगने लगा कि वह कांग्रेस वर्किंग कमिटी से त्यागपत्र दे देंगे। गाँधी जी के विरोध के चलते इस ‘विद्रोही अध्यक्ष’ ने त्यागपत्र देने की आवश्यकता महसूस की। गांधी के लगातार विरोध को देखते हुए उन्होंने स्वयं कांग्रेस छोड़ दी।
इस बीच दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। बोस का मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर आज़ादी हासिल की जा सकती है। उनके विचारों के देखते हुए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता में नज़रबंद कर लिया लेकिन वह अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से वहां से भाग निकले। वह अफगानिस्तान और सोवियत संघ होते हुए जर्मनी जा पहुंचे।
सक्रिय राजनीति में आने से पहले नेताजी ने पूरी दुनिया का भ्रमण किया। वह 1933 से 36 तक यूरोप में रहे। यूरोप में यह दौर था हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद का। नाजीवाद और फासीवाद का निशाना इंग्लैंड था, जिसने पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर एकतरफा समझौते थोपे थे। वे उसका बदला इंग्लैंड से लेना चाहते थे। भारत पर भी अँग्रेज़ों का कब्जा था और इंग्लैंड के खिलाफ लड़ाई में नेताजी को हिटलर और मुसोलिनी में भविष्य का मित्र दिखाई पड़ रहा था। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। उनका मानना था कि स्वतंत्रता हासिल करने के लिए राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ कूटनीतिक और सैन्य सहयोग की भी जरूरत पड़ती है।
सुभाष चंद्र बोस ने 1937 में अपनी सेक्रेटरी और ऑस्ट्रियन युवती एमिली से शादी की। उन दोनों की एक अनीता नाम की एक बेटी भी हुई जो वर्तमान में जर्मनी में सपरिवार रहती हैं। नेताजी हिटलर से मिले। उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत और देश की आजादी के लिए कई काम किए। उन्होंने 1943 में जर्मनी छोड़ दिया। वहां से वह जापान पहुंचे। जापान से वह सिंगापुर पहुंचे। जहां उन्होंने कैप्टन मोहन सिंह द्वारा स्थापित आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान अपने हाथों में ले ली। उस वक्त रास बिहारी बोस आज़ाद हिंद फ़ौज के नेता थे। उन्होंने आज़ाद हिंद फ़ौज का पुनर्गठन किया। महिलाओं के लिए रानी झांसी रेजिमेंट का भी गठन किया जिसकी लक्ष्मी सहगल कैप्टन बनी।
‘नेताजी’ के नाम से प्रसिद्ध सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर, 1943 को ‘आज़ाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की तथा ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ का गठन किया इस संगठन के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था। नेताजी अपनी आजाद हिंद फौज के साथ 4 जुलाई 1944 को बर्मा पहुँचे। यहीं पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” दिया।
18 अगस्त 1945 को टोक्यो (जापान) जाते समय ताइवान के पास नेताजी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हुआ बताया जाता है, लेकिन उनका शव नहीं मिल पाया। नेताजी की मौत के कारणों पर आज भी विवाद बना हुआ है।
(लेखक भारतीय इतिहास अनुसंधान केन्द्र में मीडिया सलाहकार हैं। )