सनातन संस्कृति के केन्द्र में प्रकृति है इसलिए वर्ष भर पेड – पौधे, पर्वत, सागर, नदी, आदि की पूजा की जाती है। प्रकृति पूजा का यह विधान मौसम और समय के अनुसार किया जाता है और इसके अंतर्गत प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त किया जाता है। सनातन संस्कृति में यूं तो अनेकों व्रत और त्यौहार है लेकिन वट सावित्री व्रत पूजा का अपना अलग महत्व है। प्रकृति के नजदीकी के पर्व वट सावित्री का व्रत में वट वृक्ष की पूजा की जाती है। यह व्रत प्रत्येक वर्ष जेठ माह के कृष्ण पक्ष के अमावस्या तिथि को पड़ता है। इस वर्ष यह व्रत शुक्रवार (22 मई) को पड़ रहा है। यह औरतों का महत्वपूर्ण पर्व है इस दिन सत्यवान सावित्री तथा यमराज की पूजा की जाती है।
यह व्रत, कोई समान्य व्रत नहीं अपितु पति के प्रति पत्नी का अनन्य समर्पण का पर्व है। सावित्री के अखंड व्रत के सामने यमराज को झूकना पड़ा और उनके मृत पति को जीवन देना पड़ा। सनातन धर्म में पति – पत्नी का संबंध मात्र दो शरीर का मिलन नहीं बल्कि दो आत्माओँ का मिलन कहा गया, पति – पत्नी जब अग्नि का साक्षी मानकर फेरे लेते हैं तब सात जन्म तक साथ निभाने का वादा करते हैं। हर सुहागिनें इस व्रत को अपने पति की लंबी आयु के लिए रखती है, वट सावित्री व्रत सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत है माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। पौराणिक कथाओं में कई जगह इस बात का उल्लेख किया गया है की महिलाओं अपनी पति की लंबी आयु के लिए रखे गए व्रत में बहुत शक्ति होती है। वट सावित्री का व्रत भी महिलाएं अपनी पति की लंबी आयु और वैवाहिक जीवन में सुख समृद्धि के लिए करती है।
वट सावित्री व्रत में वट वृक्ष यानी बरगद के पेड़ की पूजा की जाती है। वट वृक्ष पर सुहागिन जल चढा कर कुमकुम अछत लगाती है और पेड की शाखा मे चारो तरफ से रोली बांधती है पूरे विधि विधान से पूजा करने के बाद सती सावित्री की कथा सुनाती है कहा जाता है कि इस कथा को सुनने से सौभाग्यवती महिलाओं को अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।