“ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।”
इसका जाप करने वाले व्यक्ति को भगवान परशुरामजी के आशीर्वाद से इच्छित फल की प्राप्ति होती है।भूमिहार ब्राह्मण जाति भगवान परशुराम को अपना कुल गुरु मानती है। शस्त्र और शास्त्र के समन्वय के प्रतीक,भगवान विष्णु जी के छठवें अवतार “भगवान श्री परशुराम जी” त्रेता युग में एक ब्राह्मण ऋषि के यहां जन्मे थे लेकिन यह सर्वविदित है कि वे भगवान विष्णु के छठे अवतार थे।
भगवान परशुराम को साहस का देवता माना जाता है। परशुराम जी का जन्म पुर्नवसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम पहर में हुआ था। हिंदू पंचांग के अनुसार वैशाख माह की शुक्ल पक्ष तृतीया को अवतार दिवस के रुप मे मनाया जाता है। इसे “परशुराम द्वादशी” भी कहा जाता है। उनका जन्म ऋषि ऋचीक के पौत्र भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को ग्राम मानपुर के जानापाव पर्वत मैं हुआ था। (म.प्र) के इंदौर जिला मै हुआ था। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे।
पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम कहलाए। वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किए रहने के कारण वे परशुराम कहलाए।
आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है
ये अपने पिता के अनन्य भक्त थे, पिता की आज्ञा से इन्होंने अपनी माता रेणुका का सिर काट डाला था, लेकिन पुनः पिता के आशीर्वाद से माता की स्थिति यथावत हो गई।
सहस्त्रार्जुन के वध के बाद उसके पुत्रों ने प्रतिशोध में परशुराम जी के पिता जमदग्नि का सिर काट डाला था। इस पर परशुराम जी इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन करने की प्रतिज्ञा ले ली। भगवान परशुराम ने 21 बार घूम घूमकर पृथ्वी को निःक्षत्रिय कर दिया। इसके बाद ही कुरुक्षेत्र में पिता की अन्त्येष्टि की, वहां पितृगणों ने इन्हें आशीर्वाद दिया। बाद में उन्हीं की आज्ञा से इन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी प्रजापति कश्यप जी को दान कर दी और स्वयं तपस्या करने चले गये।
बिहार और झारखंड का एकमात्र पौराणिक परशुराम मंदिर जो परशुराम स्थल मोकामा मे वर्षों से उपेक्षित है !मान्यता है कि परशुराम जनकपुर से धनुष टूटने के बाद लौटे तो उन्होंने यहीं विश्राम किया। आज भी मोकामा में विशाल परिसर में परशुराम मंदिर है जहां एक पीपल का काफी पुराना पेड़ है जबकि एक बरगद है जिसकी दो दर्जन के करीब जड़े हैं। इन दोनों पेड़ों का इतिहास भी सैकड़ों साल पुराना है। कहा जाता है कि यह पेड़ परशुराम के वास का प्रतीक है।
धनुष तोड़ प्रभु सिय वर भयऊ… और राजा जनक की हर्षित सभा श्रीराम के जयकारों से गूंज रही थी। लेकिन, किसे मालूम था कि ‘पिनाक’ के टूटने से तीनों लोकों में कंपन हुआ है। ऐसा कंपन जिससे दूर बैठे परशुराम की साधना भी भंग हो गई और वे अपने प्रिय देवों के देव शिव के धनुष पिनाक के टूटने पर विचलित हो उठे। तभी तो क्रोधाग्नि में जलते परशुराम जब जनक की सभा में पहुंचे हर कोई हाथ जोड़े अपने पूर्वजों के नाम बता बताकर अपना परिचय देने लगा।
जिस पिनाक को तोडना तो दूर हिलाना भी बड़े बड़े शूरवीरों के लिए संभव नहीं था उसे प्रत्यंचा चढ़ाने के नाम पर दो टुकड़ों में तोडने वाले राम जानते ही होंगे कि मुझे तो जवाब परशुराम को देना है। इसलिए जब परशुराम आए तो पहले लक्ष्मण और फिर राम ने धनुष की महत्ता क्या होती है उसे खूब भलीभांति बताया। ऐसे भी पिनाक की प्रत्यंचा नमिनाथ ने उतार थी जो युद्ध, हिंसा और रक्तपात के विरोधी थे। जो जनक के पूर्वज थे और बाद में जैन धर्म के 21वें तीर्थंकर हुए। यानी जनक का कुल और जनकपुरी ने हमेशा ही जगत को अहिंसा का संदेश दिया था। इसलिए नमिनाथ ने प्रत्यंचा उतारकर धनुष की महत्ता समाप्त की और राम ने पिनाक को तोडक़र युद्धविहीन सृष्टि का संदेश दिया।
इसलिए राम ने परशुराम को भी भांति भांति से धनुष, युद्ध, हिंसा, क्रोध आदि से होने वाले नुकसान की गूढ़ बताईं। अंतत: परशुराम अपने राम से अनोखी सीख ले लौट चले अपनी राह। कहते हैं परशुराम जब जनक की सभा में पहुंचे तो क्रोधाग्रि में उनका रोम रोम दावानल की भांति दहक रहा था। अंतत: राम के सम्मुख होने पर पिनाक का मोह त्याग परशुराम वहां से चल तो दिए लेकिन जो अनल की भांति ताप उनके शरीर से निकल रहा था वह कहां ठंडा हुआ था तो उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते परशुराम कई नदी-नालाओं के लांघते अंतत: गंगा तट पहुंचे। और गंगा तो सबको शीतल कर देती है, तो भला परशुराम को क्यों नहीं करती। तभी तो दहकते परशुराम भी गंगा के जल से स्वयं को शीतल करने लगे और फिर उसी गंगा तट के उत्तरी किनारे में परशुराम ने विश्राम किया। वही उत्तरी किनारा जिसे हम मोकामा या ‘मोकामा घाट’ कहते हैं।
भगवान परशुराम जी शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने गंगा पुत्र भीष्म, गुरु द्रोण व महान दानवीर कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त “शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र” भी लिखा।
ऐसा माना जाता है कि इस दिन किये गए पुण्य का प्रभाव कभी खत्म नहीं होता। मान्यता है कि इस दिन पूजा व ध्यान करने से साहस में वृद्धि होती है और भय से मुक्ति मिलती है!
क्रमशः …