वीडी सावरकर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ‘हिन्दुत्व’ की राजनीति को सुव्यवस्थित ढ़ंग से सूत्रबद्ध किया।
‘इतिहास के उषाकाल में भारत में बस जाने वाले आर्यों ने पहले ही एक राष्ट्र का गठन कर दिया था जो कि हिन्दुओं में मूर्तिमान है….हिन्दू जन आपस में उस प्रेम क बंधन द्वारा ही नहीं बंधे हैं जो कि उनके नसों में प्रवाहित होता है और हमारे दिलों को धड़कने देता है तथा उसमें गर्मजोशी भरता है बल्कि उस विशेष श्रद्धांजिल के बंधन से बंधा हुआ है जिसे हम अपनी महान सभ्यता, अपनी हिन्दू संस्कृति को अर्पित करते हैं।’
(सावरकर, हिन्दुत्व – हिन्दू कौन है ? पृष्ठ – 94)
वीर सावरकर एक महान राष्ट्रवादी थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका अतुलनीय है। वीर सावरकर ऐसे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी धरती से स्वाधीनता के लिए शंखनाद किया। वे पहले स्वाधीनता सेनानी थे जिन्होंने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की। वे पहले भारतीय थे जिनकी पुस्तकें प्रकाशित होने से पहले ही जब्त कर ली गई थी और पहले छात्र थे जिनकी डिग्री ब्रिटिश सरकार ने वापस ले ली थी।
सावरकर के क्रांतिकारी विचारों और राष्ट्रवादी चिंतन से अंग्रेजों की नींद हराम हो गई थी और भयभीत अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी की सजा दी। 1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढ़ींगरा ने कर्जन वायले की हत्या कर दी जिसके लिए इंडिया हाउस में इस हत्या की निंदा के लिए एक सभा हुई। सभा में सर आगा खान ने कहा ककि यह सभा सर्वसम्मति से इस हत्या की निंदा करती है। इतने में वीर सावरकर ने भरी सभा में घोषणा की – ‘मुझे छोड़कर क्योंकि इस कार्य की प्रशंशा करता हूं।’ सावरकर पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने मदनलाल ढ़ींगरा को उकसाकर कर्जन वायले की हत्या करवाई है। 13 मार्च 1910 को उन्हें लंदन के विक्टोरिया स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। उससे पूर्व इनके दोनों भाइयों को भी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए जेल में बंद कर दिया था। वीर सावरकर को जब इस बात का पता चला तो वे गर्व क साथ बोले ‘इससे बड़ी और क्या बात होनी कि हम तीनों भाई मां भारती की स्वतंत्रता के लिए तत्पर हैं।’
ब्रिटेन से भारत ले जाने वाले समुद्री जहाज में सावरकर को बैठाया गया, पुलिस सिपाहियों की उन पर कड़ी नजर थी, वे उन्हें अकेला छोड़कर एक मिनट भी इधर – उधर नहीं जाते थे। सावरकर ने भी निश्चय किया कि कुछ भी हो आज उन्हें यहां से बाहर निकलना होगा। उन्होंने शौचालय की कोठरी में एक छोटा सा छेद ऊपर की ओर देखा जहां से समुद्र में कूदकर भागा जा सकता था। बस फिर क्या था… 8 जुलाई 1910 को ‘स्वतंत्र भारत की जय’ बोलकर वे समुद्र में कूद पड़े। एक भारतीय कैदी के इस प्रकार के अदम्य साहस एवं अनुपम बहादुरी को देखकर अंग्रेज सैनिक आश्चर्यचकित रह गए। सावरकर तैरते हुए डुबकी लगाते हुए फ्रांस की ओर तेजी से बढ़ रहे थे और इधर अंग्रेज सैनिक पीछे से उनपर गोलियों की बौछार कर रहे थे। लगातार कई घंटे तैरकर आखिरकार सावरकर फ्रांस की सीमा में पहुंच गए परंतु दुर्भाग्यवश वहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चलाया और उन्हें दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई । सजा सुनकर सावरकर जरा भी विचलित नहीं हुए और बड़ी गंभीर और निर्भीक वाणी में न्यायाधीश को संबोधित करते हुए कहा – ‘अपने कानून के अनुसार अधिक से अधिक कड़ी सजा मुझे आपने दी है, परंतु इससे कुछ नहीं होगा और मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि भारत माता अवश्य स्वतंत्र होगीं। कब होगीं ? पता नहीं! पर वह स्वतंत्र होगी, यह निश्चित है।’
सावरकर को कालापानी की सजा सुनाकर अंडमान भेज दिया गया। काला पानी की सजा के दौरान भयानक सेलूलर जेल जेल में रखा गया। अनेकों यातनाएं सहने के बावजूद व दीवारो पर कविता लिखते रहते। बंदियों में से जो लोग अपनी सजाएं समाप्त कर स्वदेश लौटते थे, उन्हें सावरकर अपनी कविताएं तथा संदेश कंठस्थ करा देते थे। जो लोग स्मरण न कर सकते थे, उन्हें लिखकर देते थे। साथ ही उन्हें पत्र छिपाने की विधि भी बता देते थे। इस प्रकार इनकी अनेकर कविताएं और लेख 600 मील की दूरी पार करके भारत पहुंचे और समाचार पत्रों द्वारा जनता में वितरित हुए। सावरकर के साहसिक कृत्यों की जनता में सर्वत्र प्रशंसा की जाती थी और समाचार पत्रों एवं सार्वजनिक सभाओं द्वारा इनकी शीघ्र रिहाई के लिए लगातार प्रयत्न किये जाते थे। इनकी रिहाई के लिए एक ‘सावरकर सप्ताह’ मनाया गया और करीब सत्तर हजार हस्ताक्षरों से एक प्रार्थना पत्र सरकार के पास भेजा गया। उस समय तक किसी नेता की रिहाई के लिए इतना बड़ा आंदोलन नहीं हुआ था। अंत में सरकार को विवश होकर 6 जनवरी 1924 को सावरकर को जेल से मुक्त करना पड़ा।
जेल से छूटने के उपरांत इन्होंने महाराष्ट्र में फैले छूआछूत के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान देकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टि से छूआछूत को हटाने की आवश्यकता बताई। सावरकर केवल अछूतोद्धार से संतुष्ट नहीं हुए बल्कि ईसाई पादरियों और मुस्लिमों द्वारा किये जा रहे धर्मातंरण के खिलाफ शुद्धि आंदोलन चलाया और फिर हिन्दू संगठनों के कार्य को ही जीवन का एक मात्र उद्देश्य बनाया। सन् 1936 में सावरकर कलकत्ता में आयोजित ‘अखिल भारतीय हिन्दू महासभा’ के अध्यक्ष नियोजित किए गए।
सावरकर अखंड भारत के पक्ष में थे और उन्होंने भारत विभाजन के खिलाफ जोरदार आंदोलन किया। परंतु अंत में कांग्रेस नेताओं ने पाकिस्तान विभाजन को स्वीकार कर लिया और 15 अगस्त 1947 को भारत का विभाजन हो गया। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति से जहां आम जनता में हर्षोल्लास का वातावरण फैला हुआ था वहीं अनेक लोग देश विभाजन से अत्यंत दुखी हो रहे थे। ऐसे लोगों को सांत्वना देते हुए सावरकर ने कहा था कि – ‘आज भारत का तीन चौथाई प्रदेश स्वतंत्र हो गया है इसलिए हमें हर्ष मनाना चाहिए।’
इसी बीच 30 जनवरी 1948 की शाम को नाथूराम गोडसे नामक एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने महात्मा गांधी की अमानुष ढ़ंग से गोली मारकर हत्या कर दी। हत्याकांड के षड़यंत्र की अदालती जांच शुरू हुई और इस षडयंत्र में सम्मिलित होने के संदेह पर सावरकर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। जांच पड़ताल के बाद अंत में सरकार ने उन्हें निर्दोष घोषित कर फरवरी 1949 मे जेल से मुक्त कर दिया। 12 मई 1957 को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर आयोजित शताब्दी समारोह में सावरकर ने भारतीय जनता को संबोधित करते हुए कहा कि –
‘ स्वतंत्रता प्राप्ति का महान ऐतिहासिक कार्य हमारी पीढ़ी ने संपन्न कर दिया है। अब स्वतंत्रता की प्राणपण रक्षा करने की जिम्मेदारी भारत की नई पीढ़ी को हिम्मत के साथ अपने कंधे पर लेनी चाहिए। भारत के भाग्य निर्माता हमारे नवयुवक ही हैं।’