एक जनवरी, 2018 ईस्वी संवत् बीत चुका है और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, विक्रम संवत् 2086 आ रही है। जहाँ तक उत्सव मनाने की बात है, उत्सवधर्मी भारतीय दोनों ही अवसरों का लाभ उठाकर मौज-मस्ती कर लेते हैं। परंतु जब इतिहास और व्यवहार की बात आती है तो भारत की सरकार और बुद्धिजीवी दोनों ही केवल और केवल ईस्वी संवत् का ही प्रयोग करते हैं। ऐसा करने के लिए सरकारों को अधिक दोष नहीं दिया जा सकता है। आखिर सरकार अपने आप में कोई बुद्धि और विद्या की नियामक संस्था नहीं होती, परंतु देश के बुद्धिजीवियों को इसके लिए सरासर दोषी माना जाना चाहिए कि उन्होंने पूरे देश पर एक मिथ्या, अवैज्ञानिक और तर्करहित कालगणना केवल इसलिए थोप रखी है कि यूरोपीय और अमेरिका, आस्ट्रेलिया सरीखे नवयूरोप के लोग इसे ही मानते हैं। इसलिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी कि भारतीय नवसंवत् के स्वागत के इस अवसर पर कालगणना पर विचार करना समीचीन होगा।
आज का युग विज्ञान का युग कहा और माना जाता है। आज समस्त विश्व की सारी चीजें विज्ञान से ही निर्धारित होती हैं। विज्ञान की बात करें तो इसके लिए भी एक सुनिश्चित सीमा बांध दी गई है। आज विज्ञान का अर्थ होता है यूरोपीय तथा नवयूरोपीय देशों द्वारा विकसित और स्वीकृत विज्ञान। हालांकि यह भी एक प्रकार का अंधविश्वास ही है, परंतु इसके कारण ही भारतीय ज्योतिष को अंधविश्वास मान लिया जाता है और एक नितांत काल्पनिक तथा अशुद्ध कालगणना को वैज्ञानिक कह दिया जाता है। आधुनिक यूरोपीय विज्ञान के अंधविश्वास में फंसे लोगों को बुद्धिजीवी कहना भी हालांकि एक प्रकार का बौद्धिक व्यभिचार ही होगा, फिर भी आवश्यक है उनके द्वारा फैलाए जा रहे इस अंधविश्वास का खंडन उनके ही तर्कों तथा तथ्यों से किया जाए। इसलिए भारतीय कालगणना की वैज्ञानिकता को स्थापित करने से पहले हम यह देखते हैं कि वर्तमान में प्रचलित कालगणना के आधार क्या हैं और वे आधार कितने वैज्ञानिक हैं।
सबसे पहली बात ईस्वी संवत् की है। आज इसे कॉमन एरा यानी कि सामान्य युग कहा जाने लगा है, परंतु इससे पहले इसे ईसा पूर्व तथा ईस्वी संवत् के रूप में ही लिखा-पढ़ा जाता था। ईसा पूर्व और ईस्वी संवत् का सीधा अर्थ है कि ईसा के पहले और ईसा के बाद का काल। प्रश्न उठता है कि क्या ईसाई मजहब के प्रवर्तक हजरत ईसा एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं? यदि विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले इतिहास को देखें तो उनमें कहीं भी हजरत ईसा ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में नहीं दिखाए जाते। प्रश्न उठता है कि वैज्ञानिक इतिहासलेखन के नाम पर भारत के समस्त ग्रंथों और परंपराओं को मिथकीय मानने वाली बौद्धिक जमात एक मिथकीय व्यक्तित्व के आधार पर कालगणना क्यों पढ़ और पढ़ा रही है? क्या देश की जनता को इन महान विद्वान कहे और माने जाने वाले प्रोफेसरों, रीडरों तथा लेक्चररों से यह पूछने का हक नहीं है कि भारत के कण-कण में बसे श्रीराम को मिथकीय चरित्र मानने वाले ये लोग ईसा के आधार पर कालगणना भारत के बच्चों को पढ़ाये जाने का विरोध क्यों नहीं कर पाए?
वास्तव में ईस्वी संवत् एक सांप्रदायिक कालगणना है। यह ईसाइयों द्वारा स्वीकृत कालगणना है, जैसे कि मुसलमान हिजरी संवत् मानते हैं और कुछ अन्य संप्रदाय उनके प्रवर्तकों के अनुसार संवत् स्वीकार करते हैं। यह देखना निश्चय ही आश्चर्यजनक ही है कि सत्य की आराधना करने वाले वैज्ञानिकों को कोई भी वैज्ञानिक घटना आधारित कालगणना नहीं मिली और वे भी इसी सांप्रदायिक कालगणना को अपनाए हुए हैं। इस पर भी यह अपराधबोध उन सभी के मन में अवश्य रहा होगा कि वे पूरे विश्व को एक प्रकार का धोखा दे रहे हैं और इसलिए अट्ठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही इसका नाम बदलने की प्रक्रिया का प्रारंभ कर दिया गया। सबसे पहले अंग्रेजों ने इसे कॉमन एरा कहना प्रारंभ कर दिया। इससे ईसा पूर्व की अंग्रेजी बिफोर क्राइस्ट के छोटे रूप को बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ी केवल उसमें एक ई अक्षर जोड़ दिया गया और इस प्रकार बीसी बन गया बीसीई सामान्य युग से पूर्व। ए.डी. यानी एनस डोमिनी यानी इयर ऑफ लार्ड यानी ईस्वी सन् को कॉमन एरा यानी सामान्य युग कहा गया और इस तरह यह बन गया सीई। वर्ष 2002 में इंग्लैंड और उसके पड़ोसी द्वीप वेल्श ने इसे आधिकारिक रूप से शिक्षा प्रणाली में शामिल कर दिया। इसके बाद भी नौ वर्षों तक विश्व इसे अपना नहीं पाया। वर्ष 2011 में अमेरिका और आस्ट्रेलिया ने भी इसे अधिकृत रूप से लागू कर दिया।
चूंकि यूरोपीय और नवयूरोपीय सभी देश ईसाईमत प्रधान देश हैं, इसलिए उनके लिए स्वाभाविक ही था कि वे अपने सांप्रदायिक दिखने वाली गणना को एक सेकुलर छवि प्रदान करने की कोशिश करते। परंतु दुर्भाग्यवश भारत के किसी भी बुद्धिजीवी ने इस पर प्रश्न ख़ड़ा नहीं किया, बल्कि वे इसकी अंधी नकल में जुट गए। भारतीय इतिहासलेखक भी बीसी और एडी के स्थान पर बीसीई तथा सीई का प्रयोग करने लगे। इतना ही नहीं, बल्कि बीसी और एडी लिखने वालों को इतिहासज्ञान में पिछड़ा और अल्पज्ञ भी माना और बताया जाने लगा। भारतीय इतिहासकारों को यह पूछना चाहिए था कि सीई यानी कि कॉमन एरा में कॉमन प्वाइंट यानी कि साझा बिंदु क्या है? यदि यह साझा बिंदु ईसा का जन्म ही है तो फिर बीसी और एडी में क्या बुराई है? यदि यह कोई अन्य ऐतिहासिक या खगोलीय घटना है तो फिर वे बताएं कि वह घटना क्या है?
ईसा पूर्व तथा ईस्वी संवत् तथा कॉमन एरा तथा बिफोर कॉमन एरा की सांप्रदायिकता, अनैतिहासिकत्व तथा अवैज्ञानिकता को समझने के बाद अब हम यह देखते हैं कि मानव इतिहास को जो काल विभाजन आज देश के कोमल मन-मस्तिष्क वाले बच्चों को पढ़ाया जा रहा है, वह कितना वैज्ञानिक और तथ्यपूर्ण है। वर्तमान में मानव के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया जाता है – पुरा पाषाणयुग, पाषाणयुग, कांस्ययुग और लौहयुग। इसका कालखंड भी कुछ-कुछ निर्धारित है। कुछ-कुछ इसलिए कि ये कालखंड हैं और इसलिए इनकी सीमा ही आंकी जा सकती है, निश्चित काल नहीं (कृपया चार्ट देखें)। उदाहरण के लिए लौह युग का काल 1000 वर्ष ईसा पूर्व का माना जाता है। इस युगगणना को कुछ इस प्रकार निर्धारित कर दिया गया है कि इसमें का विज्ञान गायब हो गया है और इसमें केवल अंधविश्वास शेष बच गया है। यानी आप इस पर प्रश्न खड़े नहीं करते, बस इसे मान लेते हैं और इसके आधार पर ही नए मिलने वाले तथ्यों की व्याख्या करते हैं।
इस अंधविश्वास को समझना हो तो एक उदाहरण देख सकते हैं। लौह युग को 1000 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है यानी ईसा के 1000 वर्ष से पहले मानव को लोहे का प्रयोग ज्ञात नहीं था। अब इतिहास का एक तथ्य देखें। कालीबंगा, राजस्थान में 3000 वर्ष ईसा पूर्व का एक जुता हुआ खेत खुदाई में मिला है। यह खेत बिल्कुल आधुनिक तरीके से दो फसलों की मिश्रित खेती के लिए जुता हुआ है। अब खेत की जुताई बिना हल के नहीं की जा सकती और हल बिना लोहे के नहीं बन सकता। वस्तुतः लकड़ी का कोई भी सामान बिना लोहे के औजारों की सहायता के नहीं बन सकता। परंतु चूंकि आज के विज्ञान के अंधविश्वास में 1000 वर्ष ईसा पूर्व से पहले लोहे के औजार के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता, इसलिए इतने महत्वपूर्ण प्रमाण की उपेक्षा कर दी जाती है और कहा जाता है कि कांसे से ही यह सब कुछ किया गया होगा।
बहरहाल, भले ही भारत में आज इन युगों के विभाजन को आज अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया हो, फिर भी इन युगों के विभाजन का प्रतिपादन करने वाले विद्वान भी इसकी व्यर्थता को नकार नहीं पाए हैं। उदाहरण के लिए हिस्ट्री ऑफ एनशिएंट सिविलीजेशन में चार्ल्स साइनोवोस लिखते हैं, “एक और उसी देश के लोगों ने क्रमशः अनगढ़ पत्थरों, तराशे हुए पत्थरों, कांसे तथा लोहे का प्रयोग करना सीखा। परंतु सभी देश एक ही समय में एक साथ एक ही युग में नहीं रहे। मिश्र ने तभी लोहे का प्रयोग प्रारंभ कर दिया जब ग्रीक कांस्ययुग में ही जी रहे थे और डेनमार्क के बर्बर लोग पत्थरों का ही प्रयोग कर रहे थे। अमेरिका में तराशे गए पत्थरों का युग (नूतन पाषाण युग) यूरोपियों के वहाँ जाने के बाद समाप्त हुआ। हमारे अपने काल में अभी भी आस्ट्रेलिया के असभ्य कबीले अनगढ़ पत्थरों के काल में ही रह रहे हैं। …इस प्रकार ये चार युग मानवता की यात्रा के कालखंडों को प्रदर्शित नहीं करते, बल्कि हरेक देश में ये सभ्यता के विकास की कहानी कहते हैं।”[1]
प्रश्न उठता है कि यदि यह बात सच है तो किस आधार पर अपने देश में बच्चों को यह पढ़ाया जाता है कि लोह युग केवल हजार वर्ष ईसापूर्व में प्रारंभ हुआ? फिर हम पूरी दुनिया के इतिहास को नियोलिथिक, पैलियोलिथिक आदि युगों में क्यों बांट देते हैं? यह कालखंड तो हरेक देश का अलग-अलग होना था। इसके लिए हरेक देश के इतिहास की अलग-अलग पड़ताल करनी थी। उदाहरण के लिए भारत की बात करें तो यहाँ वेदों में लोहे का स्पष्ट उल्लेख है। आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार भी वेद तो कम से कम 4-5 हजार वर्ष पुराने हैं। स्पष्ट है कि भारत का लौहयुग कम से कम 4-5 हजार वर्ष पुराना होना ही चाहिए। ऐसे में शेष युग तो और भी पीछे चले जाएंगे। इसमें अभी एक और समस्या है।
समस्या यह है कि विश्व के सभी देशों में नूतन पाषाण युग के बाद कांस्य युग नहीं आया। प्राचीन भारत के इतिहासकारों में एक प्रमुख नाम स्व. राधाकुमुद मुखर्जी अपनी पुस्तक हिंदू सभ्यता में लिखते हैं, “भारतवर्ष में अन्य देशों की भांति विकास-क्रम की ये सारी अवस्थाएं होती हैं। केवल कांस्य-युग के स्थान पर (कुछ प्रदेशों को छोड़ कर) ताम्र-युग से मिलती संस्कृति यहाँ हुई।”[2] वे यह भी लिखते हैं कि “पूर्व-प्रस्तर के अवशेष यहाँ कम ही हैं।” इसका अर्थ यह है कि भारत में पत्थरों के औजारों का प्रयोग नहीं के बराबर हुआ। एक और मजेदार बात यह है कि पाषाण युग में भी भारत में लोहे के औजार मिल रहे हैं। राधाकुमुद मुखर्जी लिखते हैं, “दक्षिण भारत में कई स्थानों पर नव-प्रस्तर-युग की बस्तियां तथा उनके औजारों को गढ़ने की कर्मशालाओं के स्थान पाए गए हैं। ज्ञात होता है कि वे लोग अपने औजारों को कड़ी चट्टानों पर बनाई हुई घाइयों में घिसते और माडते थे। 10 से 14 इंच तक लम्बी और दो इंच गहरी घाइयां पाई गई हैं। इन बस्तियों में चाक के बढ़िया बर्तन बहुतायत में मिले हैं, लम्बे ताबूत मिले हैं, जिनके साथ कभी-कभी लोहे के औजार भी पाए गए हैं। पत्थर की शिलाओं से निर्मित समाधियां या स्थाणु-संज्ञक निखात स्थान (मैगेलिथिक टोम्ब) मद्रास, बम्बई, मैसूर और हैदराबाद (दक्षिण) राज्य में बहुतायत में मिले हैं, परंतु उनमें प्राप्त लोहे के औजारों से वे नव-प्रस्तर-युग की ज्ञात होती हैं। …पाषाण-युग के बाद दक्षिण भारत में लौह-युग और उत्तर भारत में ताम्र-युग आया।”[3]
उपरोक्त विवरण साफ कर देता है कि मानव सभ्यता का पाषाण युग, नवपाषाण युग, कांस्य युग और लौह युग का विभाजन भारत पर लागू नहीं होता। जिसे यूरोपीय पाषाण युग कह रहे हैं, भारत में उस काल में भी लोहे के औजार मिल रहे हैं और भारत में तो कांस्य युग आ ही नहीं रहा है। यहाँ पहले लौह तथा ताम्र युग आ रहा है। हालांकि यदि भारतीय शास्त्रों के मत को देखें तो यह सारा युग विभाजन मूर्खतापूर्ण ही जान पड़ता है। महाभारत जोकि आज से पाँच हजार वर्ष पहले की घटना है और जिसकी ऐतिहासिकता को नकारने का कोई कारण नहीं है, में लोहे का पर्याप्त से अधिक प्रयोग पाया जाता है। पाँच हजार वर्ष पूर्व यूरोप का इतिहास प्रारंभ ही हो रहा था। वहाँ तो इस समय मनुष्य पूर्वपाषाण युग में जी रहा था। फिर आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार रामायण की घटना आज से 8-9 हजार वर्ष पहले हुई। रामायण में भी लोहे के प्रयोग के भरपूर वर्णन हैं। ऐसे में भारत में लौह युग तो और पहले का मानना पड़ेगा। इस काल में यूरोप में मानव के इतिहास का प्रारंभ भी नहीं होता। वहाँ डार्विन के मतानुसार अभी बंदर ही उछल-कूद कर रहे थे। यदि भारतीय मतों को मानें तो रामायण का काल और पीछे जाएगा और रामायण को हमारे इतिहास में काफी बाद की घटना है, उससे पहले लाखों वर्षों का इतिहास घटा है जिसमें लोहे के प्रयोग पर्याप्त हैं।
इस सारे विवरण को पढ़ने से यह साफ हो जाता है कि मानव सभ्यता के विकास को आज जिन चार कालखंडों में बाँटा जाता है, वे न केवल मिथ्या हैं, बल्कि भ्रामक भी हैं। उन्हें ये चार कालखंड इसलिए बनाने पड़ें ताकि वे पूरी दुनिया के इतिहास को यूरोप के इतिहास के सांचे में ढाल सकें। वे यह बता सकें कि यूरोप शेष दुनिया से थोड़ा बहुत ही पीछे था, और उसने पिछले 3-4 सौ वर्षों में पूरी दुनिया को पीछे कर दिया है। सचाई यह है कि दुनिया का इतिहास इन चार कालखंडों में नहीं बाँटा जा सकता। प्रख्यात भूगर्भशास्त्री चार्ल्स हैपगुड अपनी पुस्तक मैप्स ऑफ एनशिएंट सीकिंग्स में लिखते हैं, “पाषाण युग की संस्कृति, नवपाषाण युग, कांस्य युग, और लौह युग के क्रमबद्ध स्तरों से होती हुई मानवी सभ्यता के सरल एकरैखिक विकास की संकल्पना को त्याग दिया जाना चाहिए। आज हम पाते हैं कि दुनिया के सभी महादेशों में आदिम संस्कृतियां विकसित आधुनिक समाज के साथ रहती हैं – आस्ट्रेलिया के बुशमेन, दक्षिण अफ्रीका के बुशमेन, दक्षिण अमेरिका और गुएना के सच्चे आदिम लोग संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ कबीलाई लोग आदि। हमें अब यह मान लेना चाहिए कि आज से 20 हजार वर्ष पहले जब यूरोप में पाषाण युगीन लोग रह रहे थे, पृथिवी के अन्य हिस्सों में उससे कहीं अधिक विकसित संस्कृतियां उपस्थित थीं और आज हमारे पास जो कुछ भी है, उसका एक हिस्सा उनकी ही विरासत है जोकि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी गईं।”[4]
प्रसिद्ध अंतरिक्षविज्ञानी डॉ. ओमप्रकाश पांडेय कहते हैं, “इस तरह का कालविभाजन वास्तव में समय के एकरैखिक विकास की यहूदी-ईसाई संकल्पना की उपज है। भारतीय संकल्पना में काल की गति चक्रीय है, एकरैखिक नहीं और इसलिए भारतीय संकल्पना समय की अधिक बड़ी दूरी को माप सकती है।” इसलिए भारतीय युग गणना लाखों-करोड़ों वर्षों की बात करती है, जो बाइबिल के ईसा की कालगणना से बंधे यूरोपीयों को समझ में नहीं आ पाती। चार्ल्स हैपगुड सरीखे जो यूरोपीय इस बाधा से मुक्त हो गए हैं, वे भी मानव सभ्यता का इतिहास लाखों वर्षों का मानने लगे हैं। यह देखना महत्वपूर्ण है कि भारत की जिस करोड़ों तथा अरबों वर्षों की गणना को यूरोपीय मिथक मान कर खारिज कर देते हैं, आज का भूगर्भशास्त्र भी लगभग उसी प्रकार की करोड़ों तथा अरबों वर्षों की गणना करने लगा है।
आज की भूगर्भशास्त्रीय कालगणना को देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने भारतीय कालगणना के मापकों को ग्रीक नाम देकर अपना रखा है। अंतर केवल उनकी थोड़ी बहुत अज्ञानता और कालगणना के अशुद्ध तरीकों के कारण अंकों का ही है। एक तुलनात्मक विवरण देखें। भूगर्भशास्त्र में काल की सबसे पुरानी माप हैडियन की है जो कि आज से 4.6 से लेकर 4.0 अरब वर्ष पहले का है। भूगर्भशास्त्रियों का मत है कि इतने समय पूर्व सृष्टि का आरंभ हुआ। अब इसकी तुलना करें हमारे एक ब्राह्म वर्ष से। भारतीय मतानुसार ब्रह्मा का एक दिन-रात यानी कि चौबीस घंटे मानवीय गणना में 4.32 अरब वर्षों का होता है। इसे हम एक कल्प भी कहते हैं। कल्प के प्रारंभ में सृष्टि का आरंभ माना जाता है। भूगर्भशास्त्रियों ने इस पूरे कालखंड को दो भागों जिसे वे इयॉन कहते हैं, में तो बाँटा है, परंतु वे दो भाग समान नहीं हैं। पहला विभाजन है प्रिकैम्बियन इयॉन जो कि 4.6 अरब वर्ष से 54.2 करोड़ वर्ष पूर्व तक का है और दूसरा है फैनेरोजोइक इयॉन जोकि 54.2 करोड़ वर्ष से लेकर आज तक का काल है। दोनों इयॉन को एरा में बाँटा गया है। प्रिकैम्बियन इयॉन में दो एरा हैं। पहला आर्कियन एरा चार अरब वर्ष पूर्व से लेकर 2.5 अरब वर्ष पूर्व तक का है और दूसरा प्रोटेरोजोइक एरा 2.5 अरब वर्ष से लेकर 54.2 करोड़ वर्ष पूर्व तक का है। यह विभाजन भी समान नहीं है। एरा को आगे पीरियड में बाँटा गया है। आर्कियन एरा में चार पीरियड और प्रोटेरोजोइक एरा में तीन पीरियड हैं।
फैनेरोजोइक इयॉन को तीन एरा में बाँटा गया है। पहला, पैलियोजोइक एरा 54.2 करोड़ वर्ष पूर्व से लेकर 25.1 करोड़ वर्ष पूर्व तक का, दूसरा, मेसोजोइक एरा 25.1 करोड़ वर्ष से लेकर 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व का और तीसरा, सेनोजोइक एरा 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व से लेकर आज तक का। इन तीनों एरा को भी आगे पीरियड में बाँटा गया है। पीरियड को इपोक में और फिर उन्हें एज में बाँटा गया है। ये सारे विभाजन बड़े ही असमान और अस्त-व्यस्त हैं। इनमें कोई क्रमबद्धता नहीं दिखती।
इस कालविभाजनों के लिए भूगर्भशास्त्रियों ने जो प्रमाण दिए हैं, उनका आड़ोलन करने से हमें इस कालविभाजन की प्रामाणिकता और सत्यता का पता चलता है। भूगर्भशास्त्री विभिन्न चट्टानों के अध्ययन और उनके काल के रासायनिक निर्धारण से यह कालविभाजन करते हैं। इस कालविभाजन में सबसे बड़ी खामी यही है। चट्टानों की आयु से सृष्टि के चक्र को समझना असंभव बात है। सृष्टि के चक्र में जल-प्लावन, बर्फयुग जैसी अनेक प्रकार की छोटी-मोटी घटनाएं ऐसी घटती रहती हैं जो चट्टानों के निर्माण और विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं जबकि भूगर्भशास्त्री यह मान कर कालनिर्णय करते हैं कि प्रकृति भूगर्भशास्त्रीय प्रक्रियाएं प्रारंभ से लेकर आज तक गति और प्रमाण में समान दर से होती रही हैं। यह सिद्धांत वर्ष 1795 में जेम्स हट्टन ने दिया था जिसे थियोरी ऑफ यूनिफार्मिटी यानी समानता का सिद्धांत कहते हैं। यही सिद्धांत आज तक मान्य है और इसके आधार पर ही सारी भूगर्भशास्त्रीय कालगणना की जाती है।
चूंकि यह एक मानवीय गणना की क्षमता से परे लंबे कालखंड की बात है, इसलिए इसमें हमें कुछ चीजें मान कर ही चलनी होती हैं। परंतु यह कहना कहीं से भी ठीक नहीं है कि प्राकृतिक घटनाएं प्रारंभ से लेकर आज तक हमेशा एक ही गति और प्रमाण में होती रही हैं। यह संभव नहीं है। पृथिवी पर ताप और दाब जब हमेशा एक समान नहीं रहा है तो फिर प्रक्रियाओं की गति एक समान कैसे हो सकती है? इसलिए भूगर्भशास्त्र की ये सारी गणनाएं वस्तुतः एक मिथ्या सिद्धांत पर टिकी हैं।
अब यदि हम इसकी तुलना करें भारतीय कालगणना से तो हमें ध्यान में आता है कि भारतीय गणनाएं आकाशीय नक्षत्रों पर आधारित हैं। आकाशीय स्थिति में होने वाले परिवर्तन कभी भी पृथिवी की परिस्थितियों पर निर्भर नहीं होते, बल्कि इसके उलट आकाशीय स्थितियों पर ही पृथिवी की परिस्थितियां निर्भर करती हैं। स्वाभाविक ही है कि पृथिवी की कालगणना करने के लिए आकाश एक अधिक स्थिर और प्रामाणिक आधार है। इसलिए भारतीय ज्योतिष ने आकाशीय नक्षत्रीय गणना को ही प्रमाण माना और उसके आधार पर गणनाएं कीं।
उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखें तो हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि भारतीय कालगणना न केवल वैज्ञानिक है, बल्कि वह अधिक ऐतिहासिक, प्रामाणिक और सेकुलर भी है। भारतीय इतिहासकारों को न केवल स्वयं इसे अपनाना चाहिए, बल्कि उन्हें विश्वपटल पर इसकी स्वीकार्यता के लिए संघर्ष भी करना चाहिए।
[1] हिस्ट्री ऑफ एनशिएंट सिविलिजेशन, पृष्ठ 9
[2] हिंदू सभ्यता, पृष्ठ 27
[3] हिंदू सभ्यता, पृष्ठ 30
[4] मैप्स ऑफ एनशिएंट सीकिंग्स, पृष्ठ 193-194