अब कोहरे से बुझेगी प्यास

कोहरे को सिर्फ धुंध का गुबार समझना गलत है क्योंकि इस धुंध में पानी का विपुल भंडार होता है, जिसे एकत्रित करके पेयजल के रूप में उपयोग कर सकते हैं। दुनियाभर में वैज्ञानिक कोहरे या ओस जैसे अप्रत्याशित स्रोतों से पीने का पानी प्राप्त करने की तकनीक विकसित करने में जुटे हुए हैं, ताकि पानी की किल्लत वाले इलाकों में लोगों को पेयजल उपलब्ध कराया जा सके। भारतीय वैज्ञानिकों ने अब एक ऐसा मैटेरियल विकसित किया है, जिसकी मदद से घने कोहरे में मौजूद नमी को पानी में परिवर्तित किया जा सकता है। हिमाचल प्रदेश के मंडी में स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) के शोधकर्ताओं द्वारा विकसित किया गया यह एक पॉलिमर मैटेरियल है।

इस पॉलिमर मैटेरियल को ड्रैगन्स लिली हेड (ग्लैडियोलस डैलेनी) नामक पौधे की पत्तियों की सतह संरचना के आधार पर बनाया गया है। ड्रैगन्स लिली हेड की पत्तियों की सतह तथा उसके पैटर्न का अध्ययन माइक्रोमीटर और नैनोमीटर स्तर पर करने के बाद वैज्ञानिकों को उसके जल संचयन गुणों का पता चला है।

शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में कई ऐसे पौधे पाये जाते हैं, जिनकी पत्तियां अपनी खास बनावट के चलते कोहरे में मौजूद नमी का संचय जल के रूप में कर लेती हैं। यह नयी खोज प्रकृति के इसी सूत्र से प्रेरित है, जिसे विज्ञान की भाषा में बायोमिमिक्री कहा जाता है। इसके अंतर्गत पौधों एवं जंतुओं की कार्यप्रणाली का अध्ययन का अध्ययन किया जाता है और उसके अनुरूप कृत्रिम उत्पाद बनाये जाते हैं।

इस अध्ययन से जुड़े आईआईटी, मंडी के वैज्ञानिक डॉ वेंकट कृष्णन ने इंडिया साइंस वायर को बताया – “हमने ड्रैगन्स लिली हेड पौधे की संरचना और उसकी पत्तियों के पैटर्न का अध्ययन किया है जो हवा में मौजूद नमी को जल के रूप में संचित करने में मदद करती है। इस सजावटी पौधे की पत्तियों की तर्ज पर कोहरे से पानी इकट्ठा करने के लिए पॉलिमर जल संचयन सतहों का निर्माण किया गया है।” इस अध्ययन के नतीजे शोध पत्रिका एसीएस सस्टेनेबल केमिस्ट्री ऐंड इंजीनियरिंग में प्रकाशित किए गए हैं।

शोधकर्ताओं ने प्रकृति में मौजूद इन प्रणालियों को प्रयोगशाला में दोहराया है और सॉफ्ट-लिथोग्राफिक तकनीक से पॉलिमर सतह पर पदानुक्रमित मल्टीचैनल निर्मित किया है। ड्रैगन्स लिली हेड की पत्तियों की बनावट की नकल करके विकसित की गई पॉलिमर जल संचयन सतह के सकारत्मक नतीजे वैज्ञानिकों को मिले हैं। कोहरे से पानी इकट्ठा करने के लिए विकसित इस नये पैटर्न से 230 प्रतिशत अधिक पानी एकत्रित किया जा सकता है।

कई जानवर और पौधे दिलचस्प तरीके से हवा से पानी एकत्रित करते हैं। अफ्रीका के नामीब रेगिस्तान में पाया जाने वाला डार्कलिंग बीटल (झींगुर) हवा में मौजूद पानी के कणों को ग्रहण करने के लिए अपने शरीर की सतह का उपयोग करता है। बीटल कीट अपने पिछले हिस्से को हवा में उठा लेता है और उसके पंखों पर मौजूद सूक्ष्म प्रवाह क्षेत्र तथा उभार हवा की नमी को पानी की बूंदों में बदल देते हैं। इस तरह बीटल के शरीर पर टेफ्लॉन जैसी जल प्रतिरोधी कोटिंग की वजह से पानी सीधे उसके मुंह की ओर पहुंच जाता है।

नामीब बुशमैन घास, बरमूडा घास और कैक्टस जैसे पौधों की विभिन्न प्रजातियां कोहरे को ताजा पानी में बदल सकती हैं। वैज्ञानिकों ने पाया है कि बीटल के शरीर पर मौजूद उभारों की तरह पौधों के शरीर पर त्रिआयामी पदानुक्रमित संरचनाएं जल संचयन में मदद करती हैं। आईआईटी मंडी की टीम ने उस तंत्र का भी अध्ययन किया है, जिसकी मदद से बरमूडा घास कोहरे से पानी का उत्पादन करती है। वैज्ञानिकों ने ड्रॉप्टेरिस मार्जिनटा नामक पौधे में कोहरे की बूंदों के संग्रह और जल-प्रवाह गुणों का भी अध्ययन किया है। इस पौधे में बहुस्तरीय प्रवाह की जटिल प्रणाली होती है, जिससे पानी तुरंत फैल जाता है और लक्ष्य तक पहुंच जाता है।कोहरे को दुहकर उसमें से पानी निकालने को वैज्ञानिक मिल्किंग फॉग कहते हैं। कोहरे वाले इलाकों में हवा में एक बड़ा जाल (फॉग कैचर) लटकाना कोहरे से पानी प्राप्त करने की एक प्रचलित तकनीक है। कोहरे की बूंदें इस जाल पर जमा हो जाती हैं और जाल के नीचे पानी के टैंक में संचित होती रहती हैं। इन टैंकों से पानी को पीने के लिए सप्लाई कर दिया जाता है।

फॉग कैचर आधारित इस तकनीक के लिए घना कोहरा और हवा का बहाव जरूरी है। इसलिए यह तकनीक हर जगह उपयोग नहीं की जा सकती। चिली के उत्तर में स्थित इकीक शहर में कोहरा इतना घना होता है कि दुनियाभर के वैज्ञानिक यहां अध्ययन के लिए आते हैं। इसके अलावा अफ्रीका , दक्षिणी यूरोप, पेरू, ग्वाटेमाला और इक्वाडोर के कुछेक इलाकों में भी कोहरे से पानी निकालने के लिए जाल आधारित तकनीक का उपयोग हो रहा है।

ओस की बूंदों से पेयजल प्राप्त करने के लिए कुछ समय पूर्व गांधीनगर स्थित धीरूभाई अंबानी इंस्टीट्यूट ऑफ इन्फॉर्मेशन ऐंड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने फ्रांस के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर इसी तरह की एक तकनीक पेश की थी। पेयजल संकट से जूझ रहे गुजरात के कच्छ क्षेत्र के एक गांव कोठारा में स्थापित इस तकनीक से प्रतिदिन 500 लीटर पेयजल प्राप्त किया जा सकता है।

 इस प्रणाली में खासतौर पर डिजाइन किये गए कंडेन्सर पैनल, जल भंडारण इकाई और प्यूरीफिकेशन (शुद्धीकरण) इकाई लगायी गई है। जब ओस निर्माण के लिए अनुकूल स्थितियां हों, आकाश साफ और आर्द्र तटीय हवा हो तो पैनल की सतह ठंडी हो जाती है, जिससे ओस पानी की बूंदों में परिवर्तित हो जाती है। पानी की बूंदें पैनल की सतह से फिसलकर वाटर चैनल से प्रवाहित होकर टैंक में जमा हो जाती हैं।  कोहरे अथवा ओस की बूंदों को पानी में बदलने के लिए खास तरह के कंडेनसेशन पैनल का उपयोग किया है। इन पैनलों का निर्माण पौधों एवं घास की पत्तियों से प्रेरित है, जिस पर ओस की बूंदे जमा होकर पानी में परिवर्तित हो जाती हैं।नीति आयोग के मुताबिक भारत में 70 प्रतिशत दूषित जल आपूर्ति होती है और हर साल देश में करीब दो लाख लोगों की मौत साफ पानी नहीं मिल पाने से होती है। अगर वक्त रहते सही कदम नहीं उठाए गए तो वर्ष 2030 तक पेयजल की मांग आपूर्ति के मुकाबले कई गुना बढ़ सकती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बढ़ती आबादी को पेयजल मुहैया कराने के लिए नीतियों और व्यवहार में बदलाव के साथ-साथ प्रकृति प्रेरित वैज्ञानिक एवं तकनीकी नवाचारों को भी शामिल करना उपयोगी हो सकता है। (इंडिया साइंस वायर)

 

 

 

 

 

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