वामपंथ के लिये भस्मासुर है –  महिषासुर

 

आलेख  – 1  – हिंदू धर्म की नाभी और वामपंथ के वाण? 

चित्र “कैमरीना एकेडमी फेसबुक पृष्ठ” से साभार

पंचतंत्र की रंगा सियार कहानी को लाल श्रेणी के तर्कशास्त्रियों के दृष्टिकोण से देखें तो कई ज्वलंत सवाल खुजा-खुजा कर पैदा किये जा सकते हैं।  उदाहरण के लिये पंचतंत्र की कहानी विष्णु शर्मा द्वारा कही गयी अत: यह ब्राम्हणवाद का सजीव उदाहरण है। इस तरह की कहानियाँ समाज को बाँटती हैं और पंडितों का महिमा मण्डन करती हैं? यह कहानी समाज के अगडों को अर्थात कि राजपुत्रों को सिखाने पढाने के उद्देश्य से कही गयी है अंत: इन्हें खारिज कर देना चाहिये? इस कहानी में सर्वहारा सियार पूंजीपति तथा रसूखदार शेरों, बाघों और भालुओं से बच कर शहर गया तथा वहाँ कुत्तों द्वारा उसका शोषण प्रताड़न किया गया अंतत: उसके भीतर क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ और उसने परिस्थिति का अपने पक्ष में फायदा उठाया तथा जंगल की व्यवस्था को बदल दिया। इस तरह सियार वस्तुत: पहला क्रांतिकारी था जिसे रंगा और धूर्त कह कर उसके साथ अन्याय किया गया है, सदियों से होने वाले इस अन्याय के लिये शेरों-भालुओं को कभी माफ नहीं किया जाना चाहिये? बरसात के दिनों में सियार की सक्रियता अधिक रहती है और एक जुलाई तक पूरे भारत में मानसूस आ जाता है अत: प्रथम पशु-क्रांतिकारी को न्याय दिलाने के उद्देश्य से एक जुलाई का दिन रंगा सियार दिवस घोषित किया जायेगा। इस दिन पंचतंत्र की कहानियों का पुनर्पाठ होगा तथा बिटवीन द लाईन पढने के पश्चात कहानियों के वे अर्थ निकाले जायेंगे जो पिछले तीन हजार साल से कोई नहीं निकाल सका। सबसे जरूरी बात कि “रंगा सियार दिवस” का आयोजन शाम को ही होगा क्योंकि केवल दिन ढलने के पश्चात ही यह मासूम पशु सक्रिय होता है।

यह तर्क हास्यास्पद लग सकता है किंतु ठहरिये ऐसा है नहीं। कुछ विचारधारायें, कुछ संस्थायें, कुछ पत्रिकायें और कुछ व्यक्ति निरंतर ऐसे ही विश्लेषणों, तर्कों और दिवस आयोजनों के अगुआ बने हुए हैं। ध्यान रहे कि नास्तिक भी एक सम्प्रदाय ही हैं और जब वे आस्तिकों की आस्थाओं के साथ खेलना चाहते हैं तब वे साम्प्रदायिकता ही फैलाने का प्रयास कर रहे होते हैं। पिछले कुछ वर्षों से एक नया दिवस जवाहरलाल विश्व विद्यालय, नयी दिल्ली के कथित विचारकों के गर्भ से बाहर निकला है जिसे महिषासुर दिवस के नाम पर पूरी महिमा गरिमा के साथ मनाया जा रहा है। वस्तुत: पुराने संदर्भों से कोई भी नयी खोज, नयी व्याख्या, पुनर्पाठ अथवा नव-विश्लेषण अनुचित नहीं हैं किंतु यदि आपकी दृष्टि वैज्ञानिक नहीं है तो फिर आपकी कल्पनाशीलता तो मिर्ची को भी मीठा और इमली को भी तीखा सिद्ध कर सकती है और इसके लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। तथापि महिषासुर दिवस के नाम पर जो कुछ पुस्तकबद्ध किया गया है, पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है एवं बहसों में जारी है उसपर विवेचना अवश्य होनी चाहिये।

मिथक से कितना इतिहास निकाला जा सकता है? क्या मिथकों की वैसी ही विवेचना आज संभव है जैसा कि हजारों साल पहले उसका निहितार्थ था? ये दोनों ही प्रश्न आसान उत्तर नहीं रखते। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय फ्रेम प्रमोद रंजन के सम्पादन में कई किताबें महिषासुर पर प्रकाशित हुई हैं। अपनी संपादित ऐसी ही एक किताब “किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन – महिषासुर: एक पुनर्पाठ” के  अपने सम्पादकीय में वे लिखते हैं कि महिषासुर के नाम से शुरु हुआ यह आन्दोलन क्या है? इसकी आवश्यकता क्या है? इसके निहितार्थ क्या हैं? यह कुछ सवाल हैं जो बाहर से हमारी तरफ उछाले जायेंगे।“ नहीं ये उछाले जाने वाले सवाल नहीं हैं अपितु लाख टके का प्रश्न है कि बाहरी कौन है और भीतरी कौन? वे आगे लिखते हैं कि “हम एक मिथकीय नायक पर कहाँ खड़े हो कर नज़र डाल रहे हैं? एक महान सांस्कृतिक युद्ध में छलांग लगाने से पूर्व हमें अपने लांचिंग पैड़ की जांच ठीक से कर लेनी चाहिये।“ अर्थात नायक तो मिथकीय है लेकिन उसकी आड में इतिहास की ढाल को खडा कर एक युद्ध ठोस लड़ा जाना है? तो उछाला जाने वाला प्रश्न यह है कि क्या वास्तविक नायकों को सामने खड़ा कर वही युद्ध लड़े जाने में कोई बाधा है?

प्रमोद रंजन लिखते हैं कि “जो संघर्ष हुए भी, वे प्राय: धर्म सुधार के लिये हुए अथवा उनका दायरा हिन्दू धर्म के इर्द-गिर्द ही रहा। हिन्दू धर्म की नाभी पर प्रहार करने वाला आन्दोलन कोई न हुआ। महिषासुर आन्दोलन की महत्ता इसी में है कि यह हिन्दू धर्म की जीवन शक्ति पर चोट करने की क्षमता रखता है।“ इस वाक्यांश पर लिखने वाले से कई सवाल पूछे जाने चाहिये जिसमे से पहला तो यही कि हिन्दू धर्म की नाभी पर प्रहार कर उसे मार डालने की आपकी मंशा से पहले इसकी आपको जो आवश्यकता आन पडी है वह साफ होनी चाहिये; दूसरी यह कि केवल हिन्दू धर्म और उससे जुडे मिथक ही आपकी प्रगतिशीलता के निशाने पर क्यों हैं, नाभियाँ तो कई हैं? मैं आगे के आलेखों में फॉर्वर्ड प्रेस की भूमिका, महिषासुर के नाम पर प्रसारित की जाने वाली राजनीति में वाम-ईसाई सहसम्बंधों को साक्ष्य के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा। अभी यह दो सवाल आपके समक्ष छोड रहा हूँ पहला यह कि नाभी पर प्रहार “रावण को मारने के लिये” किया गया था, तो प्रमोद रंजन के इस बिम्ब की गहराई को समझिये जब वे “हिंदू धर्म की नाभी” पर प्रहार करने की बात कर रहे हैं। इस बिम्ब में राम अज्ञात नहीं है बस उनका लाल सलाम कर दिया गया है। मेरा दूसरा प्रश्न है कि केवल हिंदू धर्म की नाभी पर वामपंथियों को ही प्रहार क्यों करना है? (अगली कडी में जारी….)

(लेखक सुप्रसिद्ध रचनाकार हैं।)

नोट – ये लेखक के निजी विचार हैं।